दिवाकर भट्ट के रूप में राज्य ने खो दिया उत्तराखंड आंदोलन का एक मजबूत स्तम्भ
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
पिछले वर्ष 24 नवम्बर 2024 को भी उक्रांद के दो बार अध्यक्ष रहे त्रिवेन्द्र पंवार का सड़क दुर्घटना में निधन हुआ था। उससे उबरा भी नहीं था कि यह नई शोक-खबर पार्टी और राज्य दोनों के लिए भारी पड़ गई
यूकेडी के लिए अपूरणीय क्षति
वे ऐसे समय विदा हुए जब उत्तराखंड क्रांति दल को उनके अनुभव, संगठन क्षमता और मार्गदर्शन की सबसे ज्यादा आवश्यकता थी।
दिवाकर भट्ट को हम आज तक जिस रूप में देखते रहे हैं, उसकी पृष्ठभूमि भी बहुत गहरी थी। वह टिहरी के बडियारगढ की उस जमीन में पैदा हुए, जहां कभी टिहरी रियासत के दमनकारी शासन के खिलाफ आवाज उठी। सत्तर के दशक में वन आंदोलन का केंद्र भी यह क्षेत्र रहा है। एक तरह से यह आंदोलनों की जमीन रही है। दिवाकर भट्ट का जन्म भी उसी दौर में हुआ, जब टिहरी रियासत के खिलाफ आंदोलन करते 1944 में श्रीदेव सुमन ने अपनी शहादत दी थी। वह उस क्षेत्र में जन्मे जहां नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत हुई। उनका राजनीतिक कार्य क्षेत्र भी कीर्तिनगर ही रहा। आजादी के प्रति सपने और उसकी हकीकत के बीच दिवाकर भट्ट जी की पीढ़ी बढ़ रही थी। यही वजह है उनमें इस सबका प्रभाव पड़ा और वह 19 वर्ष की बहुत छोटी उम्र में आंदोलनों में शामिल होने लगे।
उत्तराखंड राज्य की मांग को पहली बार दिल्ली की सड़कों पर लाने का काम ऋषिबल्लभ सुंदरियाल के नेतृत्व में 1968 में हुआ था। तब दिल्ली के बोट क्लब में विशाल रैली में भाग लिया। बाद में 1972 सांसद त्रेपन सिंह नेगी के नेतृत्व में हुई रैली में वह शामिल हुए। वर्ष 1977 में वह ‘उत्तराखंड युवा मोर्चा’ के अध्यक्ष रहे। जब 1978 में त्रेपन सिंह नेगी और प्रताप सिंह नेगी के नेतृत्व में दिल्ली के बोट क्लब पर रैली हुई तो दिवाकर भट्ट उन युवाओं में शामिल थे, जिन्होंने बद्रीनाथ से दिल्ली तक पैदल यात्रा की थी। इसमें आंदोलनकारियों की गिरफ्तारी हुई और तिहाड़ जेल में रहना पड़ा।
दिवाकर भट्ट जी ने अपनी आईटीआई की पढ़ाई के बाद हरिद्वार के बीएचईएल में कर्मचारी नेता के रूप में अपनी विशेष जगह बनाई। उन्होंने 1970 में ‘तरुण हिमालय ‘ नाम से संस्था बनाई इसके माध्य से रामलीला जैसे सांस्कृतिक और एक स्कूल की स्थापना कर शिक्षा के क्षेत्र मे भी काम किया। दिवाकर भट्ट ने 1971 में चले गढ़वाल विश्वविद्यालय आंदोलन में भी भागीदारी की। उनके तेवर उस जमाने में भी ऐसे थे कि बद्रीनाथ के कपाट खुलने के समय शांति व्यवस्था भंग होने की आशंका से उन्हें उनके साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया था। इतना ही नहीं दिवाकर भट्ट 1978 में पंतनगर विश्वविद्यालय कांड के खिलाफ चले आंदोलन में बिपिन त्रिपाठी के साथ सक्रिय रहे।
दिवाकर भट्ट जी 1979 में ‘उत्तराखंड क्रांति दल’ के संस्थापकों में से हैं। उन्हें पार्टी का संस्थापक उपाध्यक्ष बनाया गया था। उत्तराखंड राज्य आंदोलन में उनकी भूमिका पर जितना कहा जाए वह कम है। उत्तराखंड क्रांति दल बनने से पहले से ही वह इसमें शामिल रहे। उक्रांद की स्थापना के बाद लगातार राज्य की मांग को सडक पर लड़ने में उनकी अग्रणी और केंद्रीय भूमिका रही है। उक्रांद के नेतृत्व में कुमाऊं-गढवाल मंडलों का घेराव, दिल्ली में 1987 की ऐतिहासिक रैली, समय-समय पर किए उत्तराखंड बंद में उनकी सक्रिय भागीदारी रही। 1988 में वन अधिनियम के चलते रुके विकास कार्यों को पूरा करने के लिए बड़ा आंदोलन हुआ, जिसमें भट्ट जी की गिरफ्तारी हुई। जब 1994 में उत्तराखंड राज्य आंदोलन की ज्वाला भड़की तो दिवाकर इस आंदोलन के प्रमुख चेहरों में से एक थे। जब 1994 के बाद आंदोलन ढीला पड़ा तो उन्होंने नवंबर, 1995 में श्रीयंत्र टापू और दिसंबर, 1995 में खैट पर्वत पर अपना आमरण अनशन किया। श्रीयंत्र टापू में यशोधर बैंजवाल और राजेश रावत शहीद हुए।
राजनीति में सक्रिय रहते हुए वह 1982 से लेकर 1996 तक तीन बार कीर्तिनगर के ब्लाक प्रमुख रहे। उन्होंने जितने भी विधानसभा चुनाव लडे उनमें उन्हें हमेशा भारी वोट मिला। वर्ष 2007 में विधायक और मंत्री भी बने। अपने क्षेत्र में आज भी उनकी गहरी पकड़ है। दिवाकर भट्ट 1999 और 2017 में उक्रांद के केंद्रीय अध्यक्ष रहे।
दिवाकर भट्ट जी को हम सब लोग एक जीवट आंदोलनकारी के रूप में जानते हैं। यह भी कि वह लड़ना जानते हैं, जीतना भी। हम सब उम्मीद कर रहे थे कि दिवाकर भट्ट जी अपनी जीवटता से अपनी बीमारी से भी लड़ेंगे और जीतेंगे भी, लेकिन यह जाबांज अपनी फितरत से आखिरी समय तक लड़ते रहे। आज उन्होंने अपने आवास हरिद्वार में अंतिम सांस ली।पिछले वर्ष 24 नवम्बर 2024 को भी उक्रांद के दो बार अध्यक्ष रहे त्रिवेन्द्र पंवार का सड़क दुर्घटना में निधन हुआ था। उससे उभरा भी नहीं था कि यह नई शोक-खबर पार्टी और राज्य दोनों के लिए भारी पड़ गई।
यूकेडी के लिए अपूरणीय क्षति
वे ऐसे समय विदा हुए जब उत्तराखंड क्रांति दल को उनके अनुभव, संगठन क्षमता और मार्गदर्शन की सबसे ज्यादा आवश्यकता थी।
लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं*

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