∆आज गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ की पुण्यतिथि∆ हिमालयी जन संघर्षों के स्वर योद्धा थे गिर्दा

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला एवं श्री प्रशांत मेहता
गिर्दा हमेशा हर ईमानदार कार्य को करने के लिए तैयार, लड़ने- मरने को हमेशा तैयार, सरकार, प्रशासन से भिड़ने को तैयार रहने वाले गिर्दा ने हमेशा से पहाड़ी क्षेत्र में हो रहा शोषण के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठायी। जन संघर्षों से उनका आजीवन नाता रहा।  गिरीश तिवारी गिर्दा का जन्म 10 सिंतबर 1945 को उत्तराखंड ,अल्मोड़ा जिले के हवालबाग ब्लॉक में  ज्योली नामक गाँव मे हुवा था। गिरीश तिवारी जी के पिता का नाम हंसादत्त तिवारी था। और माता जी का नाम जीवंती देवी था। गिर्दा की आरंभिक शिक्षा अल्मोड़ा से पूर्ण की। और 12वी की परीक्षा नैनिताल से व्यक्तिगत पूर्ण की ।कुछ समय लखनऊ में अस्थाई नौकरी करने के बाद, गिर्दा ने 1967 में गीत और नाटक प्रभाग में स्थाई नौकरी की। और लखनऊ आकाशवाणी में भी आना जाना चलता रहा। लखनऊ रहने के दौरान ,गिर्दा लिखने के साथ साथ पंत,फैज,निराला,ग़ालिब, आदि कवियों एवं लेखकों पर अध्ययन किया। 1968 में गिर्दा ने कुमाऊनी कविताओं का संग्रह शिखरों के स्वर प्रकाशित किया। इसके बाद गिर्दा ने अनेक कुमाऊनी कवितायें लिखी तथा कई कविताओं को स्वरबद्ध किया। इसके साथ साथ, अंधेर नगरी चौपट राजा, अंधायुग, नगाड़े खामोश हैं, धनुष यज्ञ जैसे अनेक नाटकों का  निर्देशन किया।1974 से उत्तराखंड में आंदोलन शुरू हो गए थे। चिपको आंदोलन, नीलामी विरोध में आंदोलन। इन आंदोलनों में गिर्दा ने एक जनकवि का रूप धारण कर ,अपनी कविताओं से इन आंदोलनों को एक नई धार दी। नीलामी विरोध आंदोलन में गिर्दा की कविता ,” आज हिमालय तुमन कै धतोंछो , जागो हो जागो मेरा लाल “1974 में उत्तराखंड आंदोलन और 1984 में नशा नही रोजगार दो आंदोलनों में गिरीश तिवारी गिर्दा के गीतों ने नई,धार और नई शक्ति दी।1994 में उत्तराखंड राज्य आंदोलन में जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा के गीत “धरती माता तुम्हारा ध्यान जागे ” से आंदोलन की शुरुआत होती थी और हम लड़ते रया भुला हम लड़ते रूलो  गीत तो जैसे उत्तराखंड राज्य आंदोलन की जान बन गया। जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दूनी में गीत ने आंदोलन को नई धार दे दी।इस प्रकार गिरीश तिवारी गिर्दा एक जनकवि के रूप में देश मे ही नही विश्व विख्यात हो गए गिर्दा ने चिपको, नशा नहीं रोजगार दो, उत्तराखंड आंदोलन व नदी बचाओ आंदोलन को अपने गीतों से तेवर दिया। जन संघर्षों से जुड़े रहने के साथ गीत व नाटक प्रभाग में नौकरी की। यहीं से लखनऊ आकाशवाणी जाना शुरू हुआ। कुमाउंनी व हिंदी कविताएं रचने के अलावा अंधायुग, अंधेर नगरी चौपट राजा, नगाड़े खामोश हैं, धनुष यज्ञ आदि नाटकों का निर्देशन किया।अलग उत्तराखंड राज्य पाने की चाहत। सड़कों पर जनता व जुबां पर ”आज हिमाल तुमन के धत्यूंछौ, जागो जागो हो मेरा लाल”, ”हम लड़ते रयां भुला, हम लड़ते रूलो” व ”ओ जैंता एक दिन त आलो उ दिन य दुनी में” जैसे जनगीत। हुड़के की थाप पर जब यह गीत बजते हैं तो बच्चे से लेकर बुजुर्ग नई ऊर्जा से भर जाते हैं। ऐसी कालजयी रचनाएं गढऩे वाले जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा की कविताएं अब स्कूलों की प्रार्थना सभा में सुनाई देंगी। डीएम नैनीताल  की अध्यक्षता में जिला योजना समिति की बैठक में गिर्दा की कविताएं प्रार्थना सभा में लागू करने के निर्देश दिए गए। राज्य आंदोलन की आवाज बने। वह जनसरोकार से गहराई से जुड़े रहे। जीवनदायिनी नदियों को बचाने के लिए आंदोलन शुरू हुआ तो गिर्दा के हुंकार भरे स्वर फूटे- ”अजी वाह! क्या बात तुम्हारी, तुम हो पानी के व्योपारी, खेल तुम्हारा तुम्हीं खिलाड़ी, बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी।” गिर्दा आज भी उत्तराखंड की आवाज हैं। मुश्किल में हिम्मत के साथ आगे बढऩे का हौसला, चुनौतियों से लडऩे का साहस देते हैं। प्रकृति से छेड़छाड़ करने वाले चेताते हैं कि ”आज भले मौज उड़ा लो, नदियों को प्यासा तड़पा लो, गंगा को कीचड़ कर डालो, लेकिन डोलेगी जब धरती, बोल व्योपारी तब क्या होगा?”उत्तराखंड के प्रसिद्ध पटकथा लेखक, गायक, कवि, संस्कृति प्रेमी, पर्यावरणविद, सामाजिक कार्यकर्ता और साहित्यकार थे. गिर्दा को राज्य में ‘जनगीतों का नायक’ भी कहा जाता है. उत्तराखंड राज्य की कल्पना को हकीकत में तब्दील करने के लिए चले वर्षों के संघर्ष व आंदोलन को अपने गीतों के माध्यम से ऊर्जा देने वाले जनकवि गिर्दा 22 अगस्त 2010 को इस लोक से विदा हो गए.राज्य 22 साल से अधिक का हो गया लेकिन गिर्दा का एक-एक गीत आज भी उतना ही ज्वलंत है जितना उस समय था. गिर्दा के गीतों को एक बार फिर से घर-घर तक पहुँचाने की जरूरत आन पड़ी है. जिस राज्य में हम जी रहे हैं वह कहीं से भी किसी आंदोलनकारी के सपनों का राज्य नहीं लगता. राज्य निर्माण के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले अमर बलिदानियों व उनकी माँगों को हम भूलते जा रहे हैं और राज्य में मची लूट-खसोट-बर्बादी के मूक दर्शक बने हुए हैं.राज्य की युवा पीढ़ी से अगर कोई पूछ ले कि गिरीश तिवारी गिर्दा को जानते हो तो शर्त के साथ कह सकता हूँ कुछ विरले ही होंगे जो गिर्दा और उनके जनगीतों से वाकिफ होंगे. भू-कानून को लेकर जिस तरह कुछ युवा सामने आए हैं उससे एक उम्मीद जरूर बंधती है लेकिन अपने राज्य व राज्य आंदोलनकारियों के सपने के उलट चल रहे उत्तराखंड को वास्तव में अगर पहाड़ोन्मुख, जनसरोकारी, पलायनविहीन, रोजगारयुक्त, शिक्षा-स्वास्थ्य युक्त बनाना है तो हमें गिर्दा जैसे आंदोलनकारियों को हर दिन पढ़ना व समझना होगा और उसी हिसाब से अपनी सरकारों से माँग करनी होगी. तब जाकर कहीं हमारे सपनों का उत्तराखंड धरातल पर नजर आएगा.22 अगस्त, 2010 को निधन हो गया।. जन आंदोलन से अस्तित्व में आए उत्तराखंड के लिए कई लोगों ने अपनी शहादत दी. इन तमाम शख्सियतों के बीच पृथक राज्य की मांग को लेकर चल रहे आंदोलन को अपने जनगीतों और कविताओं से धार देते थे गिर्दा. आज जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा की 12 वीं पुण्यतिथि है. भले ही आज गिर्दा हमारे बीच नहीं हैं. लेकिन उनकी रचनाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी राज्य आंदोलन के समय हुआ करती थी. चाहे वो नवगठित राज्य में प्राकृतिक संसाधनों की लूट हो और चाहे बेलगाम होती नौकरशाही ऐसे में गिर्दा से जाने से जो शून्य उत्तराखंड में बना है उसकी भरपाई करना मुश्किल है, हालांकि, गिर्दा का ये गीत ‘जैता एक दिन तो आलु, दिन ए दुनि में’ हमेशा पहाड़ी जनमानस को सतत संघर्ष के लिए प्रेरित करता रहेगा. ज़िंदगी के अनुभवों की भट्टी में तपकर गिरीश चंद्र तिवारी से “गिर्दा” तक का सफर तय करने वाले गिर्दा ने तात्कालिक मुददों के साथ ही जिस शिद्दत से भविष्य के गर्भ में छिपी तमाम दुश्वारियों को पहचाना था, वह दुश्वारियां आज भी राज्य में बनी हुई हैं। दरअसल गिर्दा सिर्फ कवि नहीं थे, वे जनकवि थे। उनके पास सिर्फ पाठक नहीं थे, स्रोता भी थे जो उन्हें उनकी आवाज में ही सुनते समझते थे। वह राजनीति की बारीकियों को जितनी सहजता से खुद समझते थे, उतनी सहजता से वह दूसरों को भी बातों-बातों में कब समझा जाते थे, यह समझने वाले के लिए भी हैरानी भारी बात थी। गिर्दा को उनके गीतों-कविताओं के जरिए अपने आस-पास महसूस करते रहने की कोशिशों के बाद भी उनका अब न होना बेहद खलता है। उनके गीत, उनकी कवितायें उनके पूरे-पूरे अहसास के लिए नाकाफी हैं।
इसी संकल्प के साथ उत्तराखंड के हित के लिए दूरदर्शी सोच रखने वाले इस जनकवि की पुण्यतिथि पर इनको नमन करता है ।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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