बाप रे!इतना निडर शिकारी?गाथा सुनेंगे,दंग रह जाएंगे आप
रानीखेत के नजदीक रामनगर रोड के किनारे बसे सौनी गांव के
कृपाल दत्त उपाध्याय अपनी पीढ़ी के जाने माने शिकारियों में गिने जाते थे। जीवन के शुरुआती बीस वर्ष की उम्र में इस शिकारी ने पहला बाघ दो नाली बंदूक के निशाने पर लेकर सौनी के जंगल में मारा था। अस्सी बरस के संपूर्ण जीवन काल में सन् 1996 में कैंसर से हुई मौत से कुछ वर्ष पूर्व तक भयग्रस्त क्षेत्रीय जनों के आग्रह व डीएम, एसडीएम के आर्डर पर 170 बाघों को मारने का आंकड़ा मीडिया व प्रशासन के पास इस अचूक निर्भीक शिकारी के नाम दर्ज किया गया। इनमें पचास से अधिक नरभक्षी बाघ थे, जिन्होंने हजारों की जनसंख्या वाले पहाड़ी गांवो में भय आतंक का फैलाकर सैंकड़ों नर, नारियों व बच्चो को निवाला बनाया था। अन्य निशाने पर लिए गए वे बाघ थे जिन्होंने बड़ी तादात में गांवों में घात लगा कर पालतू पशुओं का वध व निवाला बनाकर भय व आतंक फैलाया था।
इस शिकारी द्वारा मारे गए प्रत्येक नरभक्षी बाघ के शिकार की घटना रौंगटे खड़ी कर देने वाली होती थी, जो बाद के दिनों में आम जन के बीच एक साहसी शिकारी की कहानी के रूप में एक दूसरे को अपने-अपने अंदाज में कही व बताई जाती थी। शौर्य, पराक्रम, साहस व जनसेवा के एवज में दर्जनों बार इस शिकारी को तत्कालीन प्रशासन द्वारा समय-समय पर नकद इनाम, प्रमाण पत्रों, दो नाली बंदूकों व कारतूसों का उपहार भेंट कर सम्मानित किया गया। सौनी गांव का यह अचूक निशाने बाज शिकारी क्षेत्र के गांव-गांव में आज भी पराक्रमी, साहसी व निडर शिकारी के नाते याद किया जाता है।
तत्कालीन राष्ट्रीय व क्षेत्रीय समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, में प्रकाशित इस शिकारी के साक्षात्कार, अनुभव व सरकारी अधिकारियों द्वारा प्रदत्त प्रमाण पत्र आज भी पैतृक घर सौनी में उनके नाती पोतों के पास सुरक्षित हैं, इन दस्तावेजों के अवलोकन व वर्तमान में भवाली(नैनीताल) के कहलक्वीरा गांव में रहने वाली इस शिकारी की 71 वर्षीय पुत्री सावित्री देवी भट्ट पत्नी अवकाश प्राप्त वायु सेना अधिकारी स्व0केशव दत्त भट्ट के साथ हुए वार्तालाप के बाद, अनेक नरभक्षी बाघों को उनके पिता द्वारा मारने व रौंगटे खड़ी कर देने वाली घटनाओं के बारे में पता चला, जो उन्होंने अपने शिकारी पिता से बचपन व ब्याह के बाद मायके के एकान्त में अपनी छोटी बहन आनन्दी के साथ सुनी थी।
इनमें से कुछ की दास्तान बिल्लेख, मल्ला दानपुर के सल्पट्टा गांव, गगास नदी पार बडे़त गांव, डाभर गांव व गनियाद्योली के आदमखोर बाघों की हैं, जिन आदमखोर बाघों ने दर्जनों ग्रामीण लोगों व पालतू पशुओं का निवाला बना आतंक मचाया हुआ था। इस लेख के लेखक ने स्वयं भी इस शिकारी द्वारा मारे गए अनेकों नरभक्षी बाघांे की लाशें सन् 1968-1970 के दरमियान रानीखेत एस डी एम आफिस में प्रत्यक्ष देखी थी, जब नरभक्षी मृत बाघ की लाश को प्रशासनिक पुष्टि हेतु यहां लाया जाता था, जिसे देखने रानीखेत नगरवासी भी उक्त बाघ की संुदरता और सिहरन को एक साथ महसूस करने उमड़ पड़ते थे।
शिकारी कृपाल दत्त उपाध्याय की विशेषता थी कि कभी भी उन्होंने आंख से निशाना लेकर शिकार नहीं किया। बंदूक के बट को कभी भी कमर से ऊपर नहीं आने दिया। पत्तों के बीच खटका सुनते ही इस शिकारी की ट्राइगर पर तर्जनी अपना कौशल दिखाने को मचलने लगती थी। बाएं हाथ से बंदूक की नाल पकड़, दाहिने हाथ से ट्राइगर दबाते ही गोली ध्वनि की दिशा की ओर सनसनाती, हवा को चीरती सीधे शिकार के सीने में जा लगती थी। कैसा भी भंयकर आदम खोर क्यों न हो, तत्काल चारों खाने चित पड़ा मिलता था। क्या मजाल कि कभी इस शिकारी का निशाना चूका हो, या गोली बर्बाद हुई हो। कभी अकेले ही नरभक्षी बाघों की खोज व उन्हें निशाना बनाने के दौरान अनेकों बार यह शिकारी भी जिंदगी व मौत के मध्य आकर खड़ा हो, अपनी कुशाग्र बुद्धि के बल पर बाल-बाल बचा था।
सौनी गांव से सटा घना जंगल इसी गांव के नाम से आज भी वन विभाग के दस्तावाजों में सौनी का जंगल नाम से जाना जाता है, जो गांव के उत्तर दिशा में कुजगड़ की तलहटी से ताड़ीखेत तक फैला हुआ है। इसी जंगल में कृपाल दत्त उपाध्याय ने अपने शिकारी पिता देव दत्त उपाध्याय से बचपन में शिकार करने के गुर सीखे थे। वयस्क होने पर यह शिकारी सुबह चार बजे चूड़ीदार पायजामा, कोट के अंदर छोटा कुर्ता, सिर में गरम तिकोनी टोपी, पैरों में गरम जुराब व शिकारी जूते, बैग में कारतूस व बड़ा टाॅर्च तथा हाथ में भाला व बंदूक थाम अपने पालतू भोटिया कुत्ते को साथ लेकर अकेले ही शिकार पर निकल पड़ता था। दूर दराज के इलाकों में खूंखार नरभक्षी बाघों के शिकार हेतु प्रशासन की जीप सरकारी नुमाइंदो के साथ इस शिकारी को लेने इनके घर पर वक्त-बेवक्त आ पहुंचती थी।
छह दशकों के शिकारी जीवन के अनुभव का ही परिणाम था कि इस शिकारी को कई बार प्रशासन द्वारा अन्य स्थानों में शिकारियों द्वारा मारे गए बाघों की पहचान हेतु भी बुलाया जाता था, यह जानने के लिए कि उक्त बाघ नरभक्षी है या नहीं। मृत बाघ के दांत व नाखूनों तथा गर्दन के नीचे की चमड़ी के झुकाव को देख यह शिकारी इसकी पुष्टि करता था। इस तजुर्बेकार शिकारी का मानना था कि, शिकारी की गोली का छर्रा खाया घायल बाघ आदमी का दुश्मन बन, बदले की भावना से मनुष्यों पर जानलेवा हमला कर नरभक्षी बन जाता है।
यह अनुभव इस शिकारी को बिल्लेख वाले नरभक्षी बाघ को 16 दिसम्बर 1968 व कुछ वर्षांे बाद गनियाद्योली में एक अन्य नरभक्षी बाघ को मारने के उपरान्त हुआ था। जिनके शरीर में पुराने गोलियों के घाव पाए गए थे। इस शिकारी का यह भी कहना था कि, जब कोई नरभक्षी बाघ किसी मानुष को मार उसका भक्षण करता है, साथ ही उसकी मादा व शावक भी उस मरे मानुष के मांस का सेवन कर लें, स्वाद लगने पर उक्त मादा व शावक भी नरभक्षी बन जाते हैं।
इस शिकारी की विशेषता थी कि बिना मचान बनाए भी अनेकों नरभक्षी बाघों को इस शिकारी ने निशाने पर लेकर मारा था। विशेष परिस्थितियों में शिकार को निशाने पर लेने हेतु यह शिकारी मचान उस स्थान पर बनाता था, जहां पर बाघ ने लाश का कोई अंश छोड़ा हो। मचान पेड़ पर या पेड़ के कटे लट्ठांे पर, जो सुगम हो, बीस फुट की ऊंचाई पर लकड़ियों के छप्पर वाला बनाया जाता था। लाश खाने दुबारा जब बाघ उस स्थान पर आता, इस शिकारी के बुद्धि कौशल व अचूक गोली से ढेर हो जाता। पशु खोर बाघ के शिकार में मचान के आस-पास बकरी बांध दी जाती थी। बाघ के बकरी पर झपटने से पहले ही वह इस चतुर व सतर्क शिकारी के अचूक निशाने का शिकार बन जाता था।
इस शिकारी ने स्वभाव से बाघ को बहुत चालाक देखा, उसे सीधे रास्ते शिकार पर आते कभी नहीं देखा। गांव व इलाके का निरीक्षण कर उचित रास्ते से बाघ को लाश वाली जगह पर आते देखा। नौसिखिया बाघ में इस चतुराई का अभाव देखा, जो सीधे रास्ते जंगल से शिकार पर आ पहुंचता था।
कृपाल दत्त उपाध्याय के पास शिकारी जीवन के रौंगटे खडे़ कर देने वाले रोमांचक अनुभव थे, जो उनकी मेहनत, निडरता, शौर्य, पराक्रम, साहस व जनसेवा का बखान करते थे। नरभक्षी बाघ मारने हेतु एकाग्रता, शारिरिक शक्ति, शस्त्र व बुद्धि कौशल के साथ-साथ मचान बनाने की कला हो या नरभक्षी बाघ की रात-अधरात खोज करने की, या गोली बेकार किए बिना शिकार के ठीक सीने पर निशाना लगा शिकार करने की, या मचान के नजदीक बंधी बकरी बाघ से जिंदा बचाने का हौसला हो, या नरभक्षी बाघों से स्वयं को बचाने की महारत हो, इस शिकारी का कोई शानी नही था।
एक शिकारी के साथ-साथ प्रकृति विद, वैद्य व संस्कृति कर्मी होने के नाते प्रकाशित संस्मरणो व पत्रकारों को दिए इस शिकारी के साक्षात्कारों के अनुसार पहाड़ में इस मांसाहारी स्तनपायी जानवर शेर, चीते, तेंदुए आदि सभी को बाघ कह दिया जाता है। चीते व तेंदुए सहित बाघ को भी बराबर पेड़ों पर चढ़े इस शिकारी ने देखा व मारा भी। इस शिकारी के अनुसार शेर पेड़ में नही चढ़ता, परंतु सात-आठ मीटर तक ऊंची छलांग लगा लेता है। बाघ तेंदुए को मार कर खा जाता है। बाघ को नदियों में तैराकी करते एक कलाबाज के रूप में इस शिकारी ने देखा। यह भी जाना कि बाघ दौड़ता तेज है, लेकिन थक जल्दी जाता है। इसकी देखने, सुनने व संूघने की तीव्र शक्ति का अंदाजा भी इस शिकारी ने लगाया।
बाघों के जीवन का सूक्ष्म अवलोकन कर इस शिकारी ने पाया कि बाघ अकेला एक निश्चित क्षेत्र में रहता है। प्रजनन काल में नर मादा एक साथ रहते हैं। पहाड़ी इलाकों में बसंत के मौसम में बाघ प्रजनन करता है, एक बार में दो या तीन शावकों को जन्म देता है। यह एकाग्रता और धीरज से शिकार के पीछे से हमला करता है।
अपने समय के निर्भीक, साहसी व तजुर्बेकार शिकारी कृपाल दत्त उपाध्याय दसवीं तक पढे़-लिखे थे। तत्कालीन राष्ट्रीय व स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित अनेकों साक्षात्कारों में पत्रकारों द्वारा इस शिकारी को जिम कार्बेट के समकक्ष रख रोचक सवाल पूछे जाते थे। सवाल-जबाब के छपे अंश-
पत्रकार- जिम कार्बेट के बारे में कहा जाता है कि सामने से झपटते हुए बाघ को देख कर वे टोप उछाल देते थे, बाघ धोखे से टोप पर झपटता था और जिम कार्बेट बाघ पर गोली चला देते थे?
शिकारी कृपाल दत्त उपाध्याय- मैंने बाघ को कभी भी बकरी नहीं खाने दी। बाघ बकरी पर झपटने से पहले ही गोली का शिकार बन जाता था।
पत्रकार- जिम कार्बेट सोए बाघों को कभी नहीं मारते थे, ककंड मार उसे जगा कर गोली मारते थे?
शिकारी कृपाल दत्त उपाध्याय- सोए बाघ पर गोली चलाने से निशाना चूकने का खतरा ज्यादा रहता है, जिससे लेने के देने पड़ सकते हैं। शिकार के जगे रहने पर गोली सिर या सीने में मारी जा सकती है। इसलिए बाघ को कंकड़ मार जगा दिया जाता है।
पत्रकार- अचानक सामने आ खड़े बाघ की सुंदरता व अंदर से लगते डर के बारे में आप एक शिकारी होने के नाते क्या कहेंगे?
शिकारी कृपाल दत्त उपाध्याय- संुदरता और सिहरन को एक साथ महसूस करना हो तो बाघ को जाकर प्रत्यक्ष देखो।
पारंपरिक रूप से सौनी गांव का यह उपाध्याय परिवार खेती-किसानी, बागवानी व खाद्यान का व्यापार करता था। सौनी से गुजरती सड़क किनारे बनी इस शिकारी परिवार की दुकान के छज्जे के नीचे इनके द्वारा मारे गए अनेकों मृत बाघों की खाब खुली, दांत दिखाते सिर सन् 1970 के आसपास तक सजे दिखते थे।
एक शिकारी परिवार के नाते अगर हम सौनी गांव के इस उपाध्याय परिवार का लेखा-जोखा टटोले तो, यह परिवार अपने बाप-दादाओं की कई गुजर चुकी पीढ़ियों से शौकिया तौर पर नहीं बल्कि जंगली जानवरों से उत्पन्न क्षेत्र के हजारों लोगों को आदमखोर व पशुखोर बाघों से भय मुक्त व सैकड़ों लोगों की जान बचा कर जन सेवा के नाते, स्वयं की जान जोखिम में डाल खूंखार नरभक्षी बन चुके बाघों का शिकार कर अपना मानव धर्म निभा, नेक कार्य करता आ रहा था। कृपाल दत्त उपाध्याय के चार पुत्रों बिशन दत्त, लक्ष्मी दत्त व गोपाल दत्त में से सिर्फ जगदीश चन्द्र ने ही बाघों के शिकार में अपने पिता का अनुसरण कर अंतिम शिकारी पीढ़ी के नाते सरकारी आदेश पर नौ बाघों को मारा, जिनमें से एक नरभक्षी व आठ पशु भक्षी थे।
सी .एम पपनैं (वरिष्ठपत्रकार)