राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मांग में भारी इजाफा, आधुनिक युग में मंडुवा की फसल पैसे में नहीं, सामान में बिक जाती है
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
अनाजों में राजा माना जाने वाला मंडुवा आज से ही नहीं ऋषि मुनियों के काल से ही अपने महत्वपूर्ण गुणों के लिए जाना जाता है। भारत वर्ष में मंडुवे का इतिहास 3000 ई0पूर्व से है। पाश्चात्य की भेंट चढ़ने वाले इस अनाज को सिर्फ अनाज ही नही अनाज औषधि भी कहा जा सकता है।इन्ही अनाज औषधीय गुणों के कारण वापस आधुनिक युग में इसे पुनः राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर स्थान मिलने लगा है और विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मैग्जीन्स इसे आज पावर हाउस नाम से भी वैज्ञानिक तथा शोध जगत में स्थान दे रहे है।
इसका वैज्ञानिक नाम इल्यूसीन कोराकाना जो कि पोएसी कुल का पौधा है। इसे देश दुनिया में विभिन्न नामों
से जाना जाता है। जैसे कि अंग्रजी में प्रसिद्व नाम फिंगर मिलेट, कोदा, मंडुवा, रागी, मारवा, मंडल नाचनी, मांडिया, नागली आदि।भारत मे मंडुवे की मुख्य रुप से 2 प्रजातियां पायी जाती है, जो कि सामान्यतः 2,300 मीटर (समुद्र तल से) की ऊंचाई तक उगाया जाता है। मंडवे की खेती बहुत ही आसानी से कम लागत, बिना किसी भारीभरकम तकनीकी के ही सामान्य जलवायु
तथा मिटटी में आसानी से उग जाती है।मंडुवा C4 कैटेगरी का पौधा होने के कारण इसमें बहुत ही आसानी से प्रकाश संश्लेषण हो जाता है तथा दिन रात प्रकाश संश्लेषण कर सकता है। जिसके कारण इसमें चार कार्बन कम्पाउड बनने की वजह से ही मंडुवे का
पौधा किसी भी विषम परिस्थिति में उत्पादन देने की क्षमता रखता है और ईसी गुण के कारण इसे Climate Smart Crop का भी नाम भी दिया गया है।कई वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार यह माना गया है की मडुवा में गहरी जड़ों की वजह से सूखा सहने
करने की क्षमता तथा विपरीत वातावरण जहां वर्षा 300mm से भी कम पाई जाती है। यद्यपि मंडुवे की उत्पति इथूपिया हॉलैंड से माना जाता है लेकिन भारत विश्व का सबसे ज्यादा मडुवा उत्पादक देश है, जो विश्व मे 40 प्रतिशत का योगदान रखता है तथा विश्व का 25प्रतिशत सर्वाधिक क्षेत्रफल भारत में पाया जाता है। भारत के अलावा मंडवे की खेती प्रतिशत में अफ्रीका से जापान और ऑस्ट्रेलिया तक की जाती है। दुनिया में लगभग 2.5 मिलियन टन मंडुवे का उत्पादन किया जाता है।
भारत में मुख्य फसलों मे शामिल मंडुवे की खेती लगभग 2.0 मिलियन हेक्टेयर पर की जाती है जिसमे औसतन 2.15 मिलियन टन
मंडुवे का उत्पादन होता है जो कि दुनिया के कुल उत्पादन का लगभग 40 से 50 प्रतिशत है।पोषक तत्वों से भरपूर मंडुवे मे औसतन 329 किलो0 कैलोरी, 7.3 ग्राम प्रोटीन, 1.3 ग्राम फैट, 72.0 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 3.6 ग्राम फाइबर, 104 मि0ग्राम आयोडीन, 42 माइक्रो ग्राम कुल कैरोटीन पाया जाता है। इसके अलावा यह प्राकृतिक मिनरल का भी अच्छा स्रोत है।इसमें
कैल्शियम 344Mg तथा फासफोरस 283 Mg प्रति 100 ग्राम में पाया जाता है। मंडंवे में Ca की मात्रा चावल और मक्की की अपेक्षा 40 गुना तथा गेहू के अपेक्षा 10 गुना ज्यादा है। जिसकी वजह से यह हडिडयों को मजबूत करने में उपयोगी है। प्रोटीन ,
एमिनो एसिड, कार्बोहाइड्रेट तथा फीनोलिक्स की अच्छी मात्रा होने के कारण इसका उपयोग वजन करने से पाचन शक्ति बढाने में तथा एंटी एजिंग में भी किया जाता है। मंडुवे का कम ग्लाइसिमिक इंडेक्स तथा ग्लूटोन के कारण टाइप-2 डायविटीज में भी अच्छा उपयोग माना जाता है जिससे कि यह रक्त में शुगर की मात्रा नही बढने देता है।अत्यधिक न्यूट्रेटिव गुण होने के कारण
मंडवे की डिंमाड विश्वस्तर पर लगातार बढती जा रही है जैसे कि आज यू0एस0ए0, कनाडा, यू0के०, नॉर्वे, ऑस्ट्रेलिया,ओमान, कुवैत तथा जापान में इसकी बहुत डिमांड है। भारत के कुल निर्यात वर्ष 2004-2005 के आकडों के अनुसार 58 प्रतिशत उत्पादन सिर्फ कर्नाटक में होता है। कर्नाटक मे लगभग 1,733 हजार टन जबकि उत्तराखण्ड में 190 हजार टन
उत्पादन हुआ था जबकि 2008-2009 में भारत के कुल 1477 किलोग्राम हैक्टेयर औसत उत्पादन रहा। अनाज के साथ-साथ
मंडवे को पशुओं के चारे के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण माना जाता हैं जो कि लगभग 3 से 9 टन/हैक्टेयर की दर से मिल जाता है।वर्ष 2004 में मंडुवे के बिस्किट बनाने तथा विधि को पेटेंट कराया गया था तथा 2011 में मंडुवे के रेडीमेड फूड प्रोडक्टस बनाने कि लिए पेटेन्ट किया गया था। दुनिया भर में मंडुवे का उपयोग मुख्य रूप से न्यूट्रेटिव डाइट प्रोडक्ट्स के लिए किया जाता है। एशिया तथा अफ़्रीकी देशो में मंडुवे को मुख्य भोजन के रूप में खूब इस्तेमाल किया जाता है जबकि अन्य विकिसत देशो में
भी इसकी मुख्य न्यूट्रेटिभ गुणों के कारण अच्छी डिमांड है और खूब सारे फूड प्रोडक्टस जैसें कि न्यूडलस, बिस्किट्स, ब्रेड, पास्ता आदि मे मुख्य अवयव के रूप मे उपयोग किया जाता है। जापान द्वारा उत्तराखण्ड से अच्छी मात्रा में मंडवे का आयात किया जाताहै। 26 अगस्त 2013 के द टाइम्स ऑफ इण्डिया के अनुसार इण्डिया की सबसे सस्ती फसल (मंडुवा) इसके
न्यूट्रिशनल गुणों के कारण अमेरिका में सबसे महंगी है। मंडुवा अमेरिका मे भारत से 500 गुना मंहगा बिकता है। यू0एस0ए0 में इसकी कीमत लगभग 10 यू0एस डॉलर प्रति किलोग्राम है जो कि यहां 630 रू0 के बराबर है। जैविक मंडुवे का आटा बाजार में
150 किलोग्राम तक बेचा जाता है। भारत से कई देशो -अमेरीका, कनाडा , नार्वे, ऑस्ट्रेलिया, कुवैत, ओमान को मंडुवा निर्यात
किया गया। केन्या में भी बाजरा तथा मक्का की अपेक्षा मंडुवे की कीमत लगभग दुगुनी है जबकि युगाण्डा में कुल फसल
उत्पादित क्षेत्रफल के आधें में केवल मंडुवे का ही उत्पादन किया जाता है। जबकि भारत में इसका महत्व निर्यात की बढती मांग
को देखते हुए विगत 50 वर्षो से 50 प्रतिशत उत्पादन मे बढोतरी हुयी है जबकि नेपाल में मंडुवा उत्पादित क्षेत्रफल 8 प्रतिषत
प्रतिशत की दर से बढ रहाहै।चूँकि उत्तराखण्ड प्रदेश का अधिकतम खेती योग्य भूमी असिंचित है तथा मंडुवा असिंचित देशों
मे उगाये जाने के लिये एक उपयुक्त फसल है जिसका राष्ट्रीय एवम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न पोष्टिक उत्पाद बनाने
मे प्रयोग किया जाता है। मंडुवा प्रदेश की आर्थिकी का बेहतर स्रोत बन सकता है। मडुआ उत्पादन को लेकर कुछ सालों से
किसानों में बहुत निराशा थी, क्योंकि इसकी पैदावार ज्यादा थी. राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर
पालिका के अनुसार बाजार में कौड़ियों के भाव बिकता था. लेकिन अब कुछ हालात बदले हैं. सरकार मडुए की खेती को
बढ़ावा दे रही है. मडुआ उत्पादन को लेकर उत्तराखंड एक इंटरनेशनल डेस्टिनेशन बनने जा रहा है. पिछले साल 10 मार्च
को 20 टन मडुआ उत्तराखंड से डेनमार्क भेजा गया था. अब साउथ अमेरिका और यूरोपियन देशों को मडुआ भेजे जाने की
तैयारी है. अबतक देश के दक्षिणी राज्यों में मडुआ (रागी) का उत्पादन होता था. अब धीरे-धीरे उत्तराखंड में भी इसका
उत्पादन बढ़ रहा है. पश्चिमी देशों में भारत के खानपान को लेकर आकर्षण बढ़ रहा है. इसका प्रमाण कोविड-19 महामारी
में पूरे विश्व को दिया है. भारत में अत्यधिक जनसंख्या होने के बावजूद भी अन्य देशों की तुलना में कम मौतें हुईं. इसके
लिए हमारे देश की इम्युनिटी और यहां के खानपान को बड़ी वजह माना जा रहा है. वहीं, देश में पैदा होने वाले अनाजों
को लेकर भी पश्चिमी देशों में खासा आकर्षण देखने को मिला है. मडुआ या रागी इसे पश्चिमी देशों में इम्युनिटी बूस्टर
और अन्य पोषक तत्वों के लिए काफी पसंद किया जा रहा है. इसके लिए उत्तराखंड एक ग्लोबल हब के रूप में विकसित
हो रहा है. उत्तराखंड राज्य कृषि विपणन बोर्ड के डिप्टी डायरेक्टर ने बताया कि उत्तराखंड में लगातार मडुवे के उत्पादन को
बढ़ावा दिया जा रहा है. प्रदेश में कलेक्शन सेंटरों को बढ़ाया जा रहा है. उन्होंने बताया कि पिछले साल उत्तराखंड से 20
टन मडुआ डेनमार्क को एक्सपोर्ट किया गया. इस बार भी अधिक से अधिक मडुआ के कलेक्शन के लिए सेंटर स्थापित
किए जा रहे हैं. उत्तराखंड में मंडुवा की फसल काटी जा रही है और इस बार अभी तक फसल का कोई रेट निर्धारित नहीं
किया गया है। पर, किसान मन बना रहे हैं कि पिछली बार से ज्यादा दाम लिया जाए। इसी बीच गढ़वाल के इन गांवों में
वस्तु विनिमय आज भी चल रहा है। वस्तु विनिमय का मतलब, वस्तु के बदले वस्तु देना, इसमें पैसा प्रचलन में नहीं
होता। बड़ी संख्या में किसान व्यापारियों से मंडुवा के बदले, राशन और खानपान की सामग्री ले रहे हैं।स्थानीय कुछ लोग
देहरादून, ऋषिकेश के बड़े व्यापारियों के संपर्क में हैं। इन्हीं के माध्यम से किसानों से मंडुवा, झंगोरा, दालों को इकट्ठा
किया जाता है। मलाऊं गांव में एक संवाद के दौरान महिलाएं बताती हैं, हम लोग नजदीकी चोपता बाजार में एक दुकान
पर मंडुवा, झंगोरा और दालें बेचने जाते हैं। इसके बदले, घर की जरूरतों का सामान मिल जाता है। किसान इन
दुकानदारों से अनाज का पैसा नहीं लेते। पिछली बार मंडुवा किस रेट पर बेचा, पर मलाऊं गांव की, कृषक गंगा देवी का कहना है, यही कोई 20 से 22 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बिका था, यह रेट तब मिला था, जब हम खुद दुकान तक अनाज लेकर गए थे। उनके पास पिछली बार ढाई कुंतल मंडुवा था। हिसाब लगा लो, यही कोई पांच हजार रुपये की उपज बिकी। लागत की बात करें तो कम से कम तीन हजार रुपये का खर्चा हो गया। इस तरह छह माह की खेती की बचत दो हजार रुपये है, जबकि इसमें हमने अपना पारिश्रमिक नहीं जोड़ा है। वहीं, मलाऊं गांव की दुर्गा देवी का कहना है, “हमें खेत से मंडुवा के साथ अन्य फसलें, जैसे झंगोरा, रयास, सोयाबीन, चौलाई भी मिलते हैं। अनाज के साथ, पशुओं के लिए चारा भी इन्हीं खेतों से मिलता है। ये सब भी छह माह की खेती का उत्पादन हैं।मलाऊं गांव में, कुछ महिलाओं ने इस
बात का भी जिक्र किया कि, “हमारे यहां एक ही दुकान है, जहां किसान उपज बेचते हैं। वहां ज्यादा मोलभाव नहीं होता।”
ढौंडिक गांव के करीब 56 वर्षीय किसान मकर सिंह, पहले देहरादून में, एक कंपनी में ड्राइवर की जॉब करते थे। अब वापस गांव लौट आए हैं और खेतीबाड़ी व पशुपालन करते हैं। बताते हैं, “उनके पास लगभग चार कुंतल मंडुवा उत्पादन हो जाता है। स्थानीय स्तर पर ही, कुछ लोग, जिनका देहरादून की मंडी में संपर्क रहता है, किसानों से फसल खरीदते हैं।”मकर सिंह के अनुसार,”मेहनत के हिसाब से मंडुवा का रेट कम है, यह कम से 40 रुपये प्रति किलो होना चाहिए।
अगर, हम खुद की मेहनत का पैसा जोड़ने लगे तो खेती की लागत बहुत ज्यादा हो जाती है। छह माह की इस फसल को हासिल करने के लिए किसान और उसके परिवार को लगभग तीन माह खेतों में ही दिन गुजारना पड़ता है। अब आप पारिश्रमिक जोड़ सकते हैं। पर, किसान कभी अपनी मेहनत का मूल्यांकन नहीं करता।” वहीं, किरमोड़ू के नरेंद्र भी पहले टैक्सी ड्राइवर थे, पर इन दिनों खेतीबाड़ी और पशुपालन कर रहे हैं। उनके पास हर साल लगभग दो से ढाई कुंतल मंडुवा होता है, पर वो इसको बेचने की बजाय घर में इस्तेमाल करते हैं। इसकी वजह, रेट ज्यादा नहीं मिलना है। नरेंद्र इस बात से इनकार करते हैं कि “मंडुवा का रेट 20 से 22 रुपये प्रति किलो है, उनके अनुसार यह 15 रुपये प्रति किलो खरीदा जाता है। बड़े व्यापारियों के संपर्क में रहने वाले लोग, किसानों से मंडुवा इकट्ठा करके ट्रकों से ले जाते हैं।”बताते हैं,“ मंडुवा और झंगोरा, दोनों ताकत देने वाले अनाज हैं। इनकी अहमियत लोगों को कोरोना के समय में पता चली थी।
उनका बताते हैं, अनाज के बदले पैसा लेना चाहिए, न कि तेल, चावल, गुड़, नमक। तेल की क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं होती। पर, लोग इस बात से खुश हो जाते हैं कि उनको कनस्तर भरकर तेल मिल गया। हमारे बुजुर्ग पहले अनाज के बदले सामान लेते थे, पर वो जमाना कुछ और था।” वरिष्ठ पत्रकार एसएमए काजमी का कहना है, “यह सुनकर बड़ी हैरत होती है कि आज भी पर्वतीय क्षेत्र में वस्तु विनिमय चल रहा है। पुराने जमाने की यह व्यवस्था वर्तमान में किसानों की आर्थिक प्रगति के लिए सही नहीं है, क्योंकि इस सिस्टम में रुपये का आदान प्रदान नहीं होता। यह पैसों के डिजीटल लेन-देन और बैंकिंग व्यवस्था को भी हतोत्साहित करता है। अनाज के बदले सामान लेने वाले किसानों के पास गुणवत्ता वाली वस्तुओं के चयन और वस्तुओं का मोलभाव करने का विकल्प भी नहीं होता। संभवतः अनाज को मंडी तक पहुंचाने के लिए परिवहन साधन नहीं होने से, यह व्यवस्था आज भी प्रचलन में है। जहां तक अनाज के मूल्य की बात है,
किसानों को लाभ मिलना चाहिए। इसके लिए सरकार उस व्यवस्था को निर्धारित करे, जिसमें मुनाफा पाने वाले बिचौलियों की भूमिका न हो। कोआपरेटिव व्यवस्था के तहत किसान खुद उत्पादों के परिवहन, पैकेजिंग और बिक्री में भागीदारी करें।
इसी तरह के कुछ और कदम, पहाड़ में खेती किसानी को प्रोत्साहित करने वाले होंगे।” सरकार भले ही किसानों की आय दोगुना करने की कोशिशों में जुटी हो, लेकिन यह भी सच है कि राज्य में तमाम फसलों का रकबा निरंतर घट रहा है।
गेहूं और धान के बाद तीसरी बड़ी फसलों में शुमार मंडुवा का रकबा पिछले 20 सालों में 47 हजार हेक्टेयर से अधिक घटा है। इसके अलावा झंगोरा का क्षेत्रफल भी इस अवधि में 46408 हेक्टेयर पर आ गया है। यह कमी निरंतर दर्ज की जा रही है। हालांकि, अब इन फसलों की खेती क्लस्टर के आधार पर करने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।उत्तराखंड आंदोलन के दौरान ‘मंडुवा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे’ यह नारा खूब गूंजता था। जब उत्तराखंड राज्य बना तो मंडुवा व झंगोरा की ही उपेक्षा हुई। इन दोनों फसलों का घटता रकबा इसी तरफ इशारा कर रहा है। आंकड़ों पर ही गौर करें तो वर्ष 201-02 में मंडुवा का क्षेत्रफल 131779 हेक्टेयर था, जो 2019-20 में घटकर 83988 हेक्टेयर पर आ पहुंचा है। इसी तरह झंगोरा का क्षेत्रफल 20 साल पहले 66907 हेक्टेयर था, जो अब 46408 पर आ गया है। हालांकि, इन दोनों फसलों के पिछले एक दशक के आंकड़ों को देखें तो क्षेत्रफल निरंतर घट रहा है, लेकिन उत्पादकता में बढ़ोतरी के प्रयास काफी हद तक सफल रहे हैं। जानकारों के मुताबिक यदि रकबा भी बढ़ता तो उत्पादन अधिक होने से किसानों की झोलियां भी खूब भरतीं। इन मोटे आनाजो के उत्पादन में कमी से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को कितनी चोट पहुंची होगी इसका हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। कुल मिलाकर यह दोनों आनाज उत्तराखंड की अस्मिता के आधार हैं। इन दोनों ही अनाजों के उपज के क्षेत्रफल में राज्य गठन के बाद लगभग 30प्रतिशत की कमी हुई है। इस 30 प्रतिशत की कमी को सीधे तौर पर उत्तराखंड के आज के सबसे बड़े संकट “पलायन और बंजर “होती पर्वतीय खेती से सीधे तौर पर जोड़ कर देखा जा सकता है। बंजर होती खेती से जहां खेत जंगल में समा गए हैं, वहीं बंदर और
लंगूर हमारे घरों तक पहुंच गए हैं, कुल मिलाकर पर्वतीय लोक जीवन में अपनी कृषि की उपेक्षा से जो सामाजिक संकट उत्पन्न हुआ है ।उसे हम अपनी पहचान के अनाजों के महत्व को समझ कर उसके उत्पादन को बढ़ाकर ही बचा सकते हैं।
आज दो अभी दो उत्तराखंड राज्य दो ,मडुवा -झुंगरा खाएंगे ,उत्तराखंड बनाएंगे।”राज्य गठन के बाद उत्तराखंड के स्थानीय उत्पाद के महत्व को रेखांकित करता हुआ यह नारा नेपथ्य में चला गया.। पहली हरित क्रांति से लागत बढ़ने से किसान संकट में आया वह धीरे-धीरे खेती को छोड़ रहा है. अब 2025 के बाद जबकि भारत की खपत 300 लाख मैट्रिक टन अनाज की होगी और उतना ही हमारा उत्पादन होगा तब उत्पादन बढ़ाने के लिए दूसरी हरित क्रांति पर जोर होगा और वह खेती कॉर्पोरेट की तकनीक आधारित खेती होगी. जिसकी शुरुआत रिलायंस एग्रो,वॉलमार्ट आदि से भारत में हो चुकी है. पूंजी के इस अंतरराष्ट्रीय चक्र से परंपरा और किसान को बचाने के लिए यह समझना आवश्यक है. उत्तराखंड में हम बारहनाजा जा यह सफल प्रयोग कर सकते हैं. यदि राज्य और केन्द्र सरकार पहाड़ के भौगोलिक परिवेश में मडुआ जैसी परम्परागत खेती को आजीविका से जोड़ने की गम्भीर पहल करे तो निश्चित ही मंडुआ उत्तराखण्ड प्रदेश की कृषि आर्थिकी का एक बड़ा स्रोत बन सकता है. आज पहाड़ के लोग खेती-किसानी से विमुख होकर रोजी-रोटी के लिए जिस तरह मैदानी इलाकों को पलायन कर रहे है ऐसे में स्थानीय काश्तकारों व पढे़-लिखे बेरोजगार युवाओं को मंडुआ की खेती और इससे सम्बद्ध अन्य व्यवसायों से जोड़ा जाना बेहतर व करागर उपाय साबित होगा. इससे पहाड़ के गांव जहां फिर से आबाद हो सकेगें वहीं इससे भविष्य में पहाड़ की आर्थिकी भी संवर सकेगी.लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।
उत्तराखंड विधान सभा त्रैमासिक पत्रिका 2020 में प्रकशित हुआ हैं।