आस्था विश्वास, रहस्य और रोमांच का प्रतीक हिलजात्रा पर्व
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में लोकपर्व आज भी आस्था, विश्वास, रहस्य और रोमांच का प्रतीक हैं. ये पर्व जहां पहाड़ की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाते हैं, वहीं लोगों को एकता के सूत्र में भी बांधते हैं. ऐसी ही एक पर्व है सोरघाटी पिथौरागढ़ का ऐतिहासिक हिलजात्रा, जो यहां 500 साल से मनाया जा रहा है. हिलजात्रा उत्तराखंड का प्रमुख मुखौटा नृत्य है। इस मुखौटा नृत्य का अब तक देश के प्रमुख महानगरों सहित अन्य शहरों में मंचन हो चुका है।हिलजात्रा का शाब्दिक अर्थ कीचड़ का खेल है। हिल का शाब्दिक अर्थ दलदल यानि पानी वाली दलदली भूमि और जात्रा का अर्थ खेल, तमाशा या यात्रा है। जिसका सीधा तात्पर्य पानी वाले दलदली भूमि में की जाने वाली खेती और खेल का मंचन है। सोरघाटी के कुमौड़ और बजेटी गांवों में इसे एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इसके अलावा जिले के भुरमुनी, बलकोट, मेल्टा, खतीगांव, बोकटा, पुरान, हिमतड़, चमाली, जजुराली, गनगड़ा, बास्ते, भैंस्यूड़ी, सिल चमू, अगन्या, उड़ई, लोहाकोट, सेरा, पाली, डुंगरी, अलगड़ा, रसैपाटा, सुरौली, सतगड़, देवलथल, सिनखोला, कनालीछीना में मनाया जाता है। प्रत्येक स्थान पर हिलजात्रा मंचन में अंतर पाया जाता है। कुमौड़ की हिलजात्रा को विशिष्ट है, जहां पर लखिया भूत आता है।यह उत्सव वर्षा ऋतु की समाप्ति और शरद के आगमन से कुछ पूर्व मनाया जाता है। हिमालयी राज्यों में सिक्किम, लेह लद्दाख, अरुणाचल प्रदेश, नेपाल, तिब्बत के अलावा चीन जापान और भूटान में भी मुखौटा नृत्य की परंपरा है। नेपाल में हिलजात्रा को इंदर जात्रा के नाम से जाना जाता है। पिथौरागढ़ जिले में सातू आंठू पर्व की समाप्ति के बाद इसे मनाया जाता है। इस पर्व तो माता सती का पर्व भी माना जाता है। जिसे कृषि पर्व के रूप में जाना जाता है।पिथौरागढ़ के सोर घाटी में पूर्व में पूरा जनजीवन कृषि पर केंद्रित था। उसी परिवेश के क्रियाकलापों का कला के रूप में प्रदर्शन हिलजात्रा में किया जाता है। यह उत्तराखंड की एक विशिष्ट लोक नाट्य शैली है। मुखौटों के साथ होने वाले इस उत्सव में लोक जीवन के साथ आस्था और हास्य भी है। मुख्य पात्रों की भूमिका पुरुष निभाते ही निभाते हैं। लखिया भूत इस उत्सव का मुख्य पात्र है। जो भगवान शिव का 12वां गण है। उसके मैदान में आते ही पूरा उत्सव आस्था में बदल जाता है। लखिया धन, धान्य और सुख समृद्धि का आर्शीवाद देता है।जिसके चलते लगभग दो से तीन घंटे तक चलने वाले उत्सव के दौरान पूरा वातावरण शिवमय हो जाता है। सोर के कुमौड़ और बजेटी की हिलजात्रा विशेष मानी जाती है। हिलजात्रा कई स्थानों पर मनाई जाती है, लेकिन सबसे अधिक ख्याती बटोरी है, कुमौड़ की हिलजात्रा ने. कहा जाता है कि चार महर भाइयों की वीरता से खुश होकर नेपाल नरेश ने मुखौटों के साथ हिलजात्रा पर्व उपहार में दिया था. हिलजात्रा आयोजन समिति के अध्यक्ष यशवंत महर बताते हैं कि वक्त के हिलजात्रा पर्व में काफी बदलाव आया, लेकिन लोगों की आस्था इस पर्व को लेकर बढ़ती ही रही है.हिलजात्रा पर्व का आगाज भले ही महरों की बहादुरी से हुआ हो, लेकिन अब इसे कृषि पर्व के रूप में मनाया जाने लगा है. हिलजात्रा में बैल, हिरन, चीतल और धान रोपती महिलाएं यहां के कृषि जीवन के साथ ही पशु प्रेम को भी दर्शाती हैं. समय के साथ आज इस पर्व की लोकप्रियता इस कदर बढ़ गई है कि हजारों की तादाo में लोग देखने आते हैं. लखिया भूत के गण का रोल करने वाले बताते हैं कि पर्व के दौरान होने वाले कार्यक्रमों में वे घंटों लगातार अपना रोल अदा करते हैं. लेकिन उन्हें कोई थकान नही लगती, साथ ही वे कहते हैं कि लखिया बाबा का आशीर्वाद उन पर है, तभी वे ये भूमिका निभा पाते हैं. पिथौरागढ़ की हिलजात्रा पर दर्जनों शोध कार्य हो चुके हैं। राष्ट्रीय स्तर पर मंचित होने वाली हिलजात्रा ने उत्तराखंड को राष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान दिलाई है। दूरदर्शन से कई बार इस मंचन का प्रदर्शन हो चुका है। उत्तराखण्ड में कुमॉउ की अपनी अलग ही सास्कृतिक धरोहरें है जो कि आज भी कुमॉउ के पर्वतीय अंचलों में मनाये जाने वाले धार्मिक आयोजनों में साफ देखी जा सकती है। इन्ही सास्कृतिक आयोजनों में से एक है हिलजात्रा पर्व जो कि मुख्य रूप से पिथौरागढ जनपद में मनाया जाता है। लेकिन कई साल पहले उधम सिह नगर जनपद के तराई इलाके खटीमा में बसे सौर घाटी पिथौरागढ के लोग हिलजात्रा पर्व मना कर अपनी सास्कूतिक व धार्मिक धरोहरों को बचाये हुए है।उत्तराखण्ड में मनाये जाने वाले धार्मिक आयोजनो के अपने अनुठे रंग है। इन धार्मिक आयोजनों में जहाँ उन इलाको की सांस्कृतिक झलक देखने को मिलती है वही कृषि पर आधारित पर्वतिय समाज को भी ये आयोजन परिलक्षित करते है। कुमॉउ की संस्कृति में ऐसा ही एक धार्मिक आयोजन मनाया जाता हिलजात्रा पर्व। इस पर्व को मुख्य रूप से सीमान्त जनपद पिथौरागढ के लोगों द्वारा मनाया जाता है। लेकिन कई दषकों पहले सोर घाटी के रूप में जाने जाने वाले पिथौरागढ को छोड कर उधम सिह नगर जनपद के खटीमा इलाके में बसे मजराफार्म गॉव के लोग आज भी तराई इलाके में भी हिलजात्रा पर्व मना कर अपनी धार्मिक व सास्कृतिक विरासत को बचाने का काम कर रहे है। खटीमा में मनाये जाने वाले हिलजात्रा पर्व के आयोजन में जंहा ग्रामिण द्वारा बैंलो के जोडों व नन्दी बैंल का स्वाग रच कर ग्रामिण दर्षकों के सामने खेल कराये जाते हैं। वही महिलायें गोल घेरा लगा कर अपने धार्मिक गीतों को गाकर इस पर्व में षिरकत करती है।वही इस पर्व में पर्वतीय वाद्यय यंत्रों हुडका,ढोल,दमुआ आदि को भी बजाया जाता है। हिलजात्रा पर्व को मनाने के पीछे ग्रामिणो का कहना है कि खटीमा के मजराफार्म गॉव में सन् 1976 से हिजात्रा पर्व का धार्मिक आयोजन उनके द्वारा किया जा रहा है। इस पर्व को मनाने के पीछे जो किदवंती है मॉ महाकाली द्वारा जब संभू निसंभू दैत्यो का संहार किया गया था तब षिव भगवान के नन्दी बैल व उनके वीरों ने इसी तरह स्वाग रच कर महाकाली के साथ दैत्यों का वध करने में सहायता की थी। वही दुसरी ओर इस पर्व के माध्यम से वह अपने द्वारा उगाये गये अनाज का पहला भोग भी भगवान को अर्पित करते है। वही इस आयोजन में प्रतिभाग करने वाले युवा भी ऐसे धर्मिक आयोजनों के माध्यम से अपने धर्मिक व सास्कृतिक विरासतों को समझने व उसने जुडने का बेहतर माध्यम बताते है। सूचना क्रांति और मॉल संस्कृति के बढ़ते चलन ने इनके स्वाभाविक स्वरूप को बदल दिया है. अब ग्रामीण परिवेश में आयोजित होने वाले ये मेले कौतिक संक्रमण काल में है. लोक विधाओं के जानकार तेजी से घटे हैं. ग्राम–समाज की जगह अब यह मेले-उत्सव बहुधा मंचीय प्रस्तुति मात्र रह गए हैं. सामजिकता को जीवंत रखने के लिए इन लोक पर्वों और संस्कृतियों को सहेजा जाना आवश्यक लगता है. सदियों से समाज के दबे-पीड़ित और शोषित वर्ग खासकर महिलाओं ने सामाजिक उपेक्षा और जीवन संघर्षों से जुड़ी आपाधापी को अभिव्यक्त करने के लिए अपनी लोक भाषा का सहारा लिया. लोक गीत किसी कवि विशेष की रचना नहीं है. यह तमाम रचनाएं अलग अलग समयों में विभिन्न लोगों के मानस और कंठों से होकर ही पूर्ण और पल्लवित हुई हैं.आज परिवेश आधारित लोक ज्ञान को संरक्षित व प्रसारित करने की आवश्यकता है. नई पीढ़ी के अधिकाँश लोगों को इनके बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं है. अगर इन लोक विधाओं को विद्यालयी पाठ्यक्रम से जोड़ते हुए बच्चों के सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं में शामिल किया जाए तो जहाँ एक ओर इन लोक विधाओं का संरक्षण हो सकेगा वहीं युवा पीढ़ी द्वारा इसे समृद्ध करने की दिशा में अपना योगदान दिया जा सकेजिसे देखने अब सैलानी भी पहुंचने लगे हैं। हिलजात्रा का उत्सव रोमांचक और बेहद मनोरंजक है। जो मंचन के बाद दर्शकों में अपनी छाप छोड़ जाता है यदि हमें अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान को सभी विविधताओं और समृधि के साथ सुरक्षित रखना है तो कला शिक्षा को हमारे विद्यार्थियों की औपचारिक शिक्षा में एकीकृत करने की जरुरत पर अविलम्ब ध्यान देने की आवश्यकता है. भारत में कलाएं धर्म निरपेक्षता और सांस्कृतिक विविधता का भी जीवंत उदाहरण हैं जिसकी समझ हमारे युवाओं को कलात्मक परम्पराओं की समृद्धि और विविधता को बढावा देने की योग्यता प्रदान करेगी साथ ही उन्हें उदार, रचनात्मक चिन्तक और राष्ट्र का अच्छा नागरिक बनायेगी. कलाएं हमारे युवा नागरिकों को न केवल उनके विद्यालयी जीवन में अपितु जीवन पर्यंत समृद्ध करेंगी. आयोजकों ने कोविड गाइड लाइन को ध्यान में रखते हुए आयोजन स्थल पर मास्क को अनिवार्य किया था। कुमौड़ में होने वाली हिलजात्रा का मंचन देश के कई राज्यों के साथ ही देश की राजधानी दिल्ली में भी कई बार हो चुका है। उत्तराखंड में साल भर ऐसे पर्व मनाए जाते हैं जिनका सीधा संबंध ऋतु परिवर्तन से ,फसल बोने व काटने से तथा पशुओं से होता है। और हर त्यौहार उत्तराखंड की अनोखी संस्कृति ,पहाड़ी समाज की अपनी समृद्ध विरासत को जरूर झलकाता है।हर त्यौहार यहां की माटी की खुशबू, यहां की सांस्कृतिक विरासत व हमारे पूर्वजों की अनोखी धरोहर को समेटे हुए होता है। उत्तराखंड के पहाड़ी भूभाग पर लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है।इसलिए किसान की अनमोल पूजीं उसकी भूमि, जंगल व पशु ही हैं ।यह पर्व हमें हमारी जड़ों से जोड़े रखने का कार्य करता है ।ऐसे ही पर्व हमें हमारी सांस्कृतिक विरासत, हमारे पूर्वजों के धरोहर को सहेजने व संभालने का काम करते हैं और नई पीढ़ी को भी हमारी इस पर अनोखी समृद्ध धरोहर की जानकारी देते रहते हैं।
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग में वैज्ञानिक के पद का अनुभव प्राप्त हैं तथा वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत है।