उत्तराखंड 22 साल की यात्रा: विकसित होता मैदान,उजड़ता हुआ पहाड़
दिनेश तिवारी , एडवोकेट
आज उत्तराखंड राज्य बाइस साल का हो गया . अपने बाईस साल के इस सफ़र में इस नवोदित राज्य के हिस्से में कई उतार , चढ़ाव आए हैं . अनेक राजनैतिक , सामाजिक संगतियों , विसंगतियों का यह मूक गवाह बना है । कई पड़ावों से गुज़रती हुई इसकी विकास यात्रा के कई रूप हैं कई पहलू हैं कई पक्ष हैं । उजले भी और काले भी । इसके जीवन में उल्लास के क्षण भी हैं तो निराशा के क्षण भी कोई कम नहीं हैं । यहाँ एक तरफ़ चमकती हुई बहुमंज़िला इमारतें हैं तो झुग्गी, झोपड़ियों , ईंट, गारे , पत्थरों से बने कच्चे पक्के मकानों का सच भी पसरा हुआ है ।’ सिडकुल’ की भीमकाय , गगनचुंबी फैक्टरियाँ हैं तो पहाड़ों की बंजर और उजाड़ होती हुई धरती भी है . नगरों से महानगरों में तब्दील होते हुए मैदानों के अपने शहर हैं तो लगातार ख़ाली हो रहे पहाड़ी गाँव और पहाड़ी शहर भी हैं । विकसित होते हुए मैदान और उजड़ता हुआ पहाड़ दोनों ही आज का सच हैं .
इस राज्य की विकास गाथा में एक तरफ़ इलेक्ट्रॉनिक्स , आधुनिक टेक्नॉलोजी की विकसित होती हुई दुनियाँ है तो दूसरी ओर झाड़ , पूछ , जादू , टोने , टोटकों , अंधविश्वास का साम्राज्य भी अपनी दमदार उपस्थिति बनाए हुए है . यहाँ दो तरह के संसार हैं । एक ओर आधुनिक सुविधाओं से लैस कॉन्वेंट स्कूल , कालेज और हॉस्पिटल हैं तो दूसरी ओर बिना चटाई , बिना शिक्षक बिना लैब , लाइब्रेरी और बिना छत के स्कूल हैं । पिछड़े , अभावग्रस्त , आधुनिक सुविधाओं , ज्ञान , विज्ञान से वंचित अस्पतालों में दम तोड़ते , चीख़ते , चिल्लाते मरीज़ों और तिमारदारों का संसार भी आज का और इसी राज्य का कड़वा सच है . कुल मिला कर इस राज्य का विकास भी सच है और पिछड़ापन भी . लेकिन समग्र रूप से देखें तो इस राज्य की तस्वीर एक पिछड़े और ग़रीब राज्य की ही बनती है
देहरादून की चमचमाती रोशनी के नज़रिए से देखने से पहाड़ के गाँवों की बदहाली , पिछड़ापन और ग़रीबी कम या ग़ायब नहीं हो जाती . टूटे, फूटे , मिट्टी , पत्थरों से बने हुए छोटे छोटे घर , पानी के लिए सार्वजनिक नलों , नौलों , धारों , नदियों , गाड़ , गधेरों पर ग्रामीण और वो भी पहाड़ी गाँवों की निर्भरता कहाँ कम हुई है ?
पहाड़ की अर्थ व्यवस्था कृषि पर आधारित है । यहाँ की आबादी का बड़ा भाग कृषि कार्यों से ही रोज़ी रोटी कमाता है लेकिन इस राज्य की कृषि व्यवस्था पिछड़ी हुई अवस्था में है .राज्य के पहाड़ी भाग की खेती और बागवानी मध्ययुगीन सोच और विचार से संचालित है । यह दुखद लेकिन सच है कि पहाड़ की खेती ‘वस्तु विनिमय’ के विचार से मुक्त नहीं हो सकी है . इसीलिए राज्य का कोई उत्पाद न तो हिमाचल और जम्मू कश्मीर के ‘सेव , केसर ‘ की तरह बाज़ार में है और न ही नागपुर के संतरे से मुक़ाबले में है . इस हिमालयी राज्य में सिंचाई सुविधाओं और आधुनिक जानकारियों के अभाव ने किसानों की उत्पादकता को बुरी तरह प्रभावित किया है । यही हाल पशुपालन तथा अन्य सहायक कृषि परक कारोबार का है जो बजट की कमी , पशु चिकित्सालयों के अभाव और बाज़ार की समझ के अभाव में ख़त्म होने की दिशा में है .
राज्य खनिज और जड़ी बूटियों के क्षेत्र का एक प्रमुख उत्पादक और निर्यातक हो सकता है और कई हज़ार नौजवानों को रोज़गार देने में सक्षम भी , लेकिन अपार खनिज संपदाओं जैसे चूना पत्थर , राकफास्फेट , डोलोमाइट , मैगनेसाइट , कापरग्रेफ़ाइट , सोफस्टोन , ज़िपसम , टंगसटन , खड़ीया , ताम्बा आदि में धनी राज्य होने के बावजूद लघु , मंझोले और बड़े उद्यगों के मामलों में पिछड़ गया है . इस राज्य में लघु उद्योगों की संख्या ४१,२१६ के आसपास है जबकि बड़े उद्योग १९१ हैं जो कि आगे बढ़ने की जगह बंद होने की कगार पर हैं । इसी तरह जड़ी बूटियों से जुड़े उद्योगों का है जहाँ सरकारी सेक्टर पतंजलि आयुर्वेदा , डाबर , चरक , उंझा फ़ार्मेसी , हिमानी ग्रुप , बैद्यनाथ जैसी दवा कम्पनियों से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं है जो हिमालयी राज्यों से जड़ी बूटियाँ लेकर प्रति वर्ष २६,९४६६ अरब रुपए से अधिक का कारोबार कर रही हैं ।
पलायन उत्तराखंड राज्य की बड़ी समस्याओं में से एक है और रोज़गार का अभाव इसकी सबसे बड़ी वजह है । अक्सर यह कहा जाता है कि शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की कमियों के कारण पहाड़ों से पलायन होता है लेकिन पलायन आयोग के सर्वे में ५० प्रतिशत लोगों ने पहाड़ों से पलायन की सबसे बड़ी वजह आजीविका और रोज़गार की कमी को माना है . केवल ८.८३ प्रतिशत ने स्वास्थ्य सुविधा और १५.२१ प्रतिशत ने शिक्षा को कारण माना है .
उत्तराखंड राज्य का स्वास्थ्य महकमा ख़ुद अनेक बीमारियों का शिकार है . राज्य का स्वास्थ्य बजट सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ़ १.१ प्रतिशत है जो कि वर्तमान चुनौतियों को पूरा करना तो दूर उनके सामने टिकने में भी असमर्थ है . हिमालयी राज्यों में उत्तराखड स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च करने वाले राज्यों में सबसे निचले पायदान पर है . भारतीय रिज़र्व बैंक की स्टेट फ़ाइनैन्स ए स्टडी आफ बजट – २०२०-२१ रिपोर्ट के अनुसार हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड सरकार जन स्वास्थ्य पर सबसे कम ख़र्च करने वाली सरकारों में है। जन स्वास्थ्य पर उत्तराखंड सरकार ने सबसे कम १.१ प्रतिशत ख़र्च किया है . इस सूची में शामिल जम्मू कश्मीर ने २.९ प्रतिशत , हिमाचल १.८ प्रतिशत और पूर्वोतर राज्यों ने कुल बजट का २.९ प्रतिशत ख़र्च किया है . यही हाल शिक्षा के बजट का है जिसे वर्तमान परिस्थितियों में बढ़ाने की जगह निरंतर कटौती की जा रही है ।
जर्जर सड़कें , एम्बुलेंस सेवाओं की बेहद कमी और उच्च स्तरीय पैथोलाज़ी , विशेषज्ञ डॉक्टर का अभाव जैसे कारणों ने पर्यटन और अन्य निवेश को राज्य से बाहर जाने के लिए विवश कर दिया है ।
वस्तुतः हम आज के दिन एक ऐसे प्रदेश के बाशिंदे हैं जो अपने जन्म से लेकर आज तक भ्रष्टाचार की अनेक छोटी बड़ी घटनाओं का साक्षी है . प्रदेश की अंतरिम सरकार से लेकर आज तक की २२वर्षों की विकास यात्रा भ्रष्टाचार के ज्ञात , अज्ञात मामलों से ओतप्रोत है । ज़ाहिर है कि भर्ती घोटालों से लेकर अन्य तमाम घोटालों ने देवभूमि की पवित्रता को कलंकित किया है और हमारी सम्भावनाओं और श्रेष्ठता को प्रभावित किया है .