‘दास्तां ए जोशीमठ’-भाग-1 जोशीमठ से लौटकर बयां एक्टिविस्ट दिनेश तिवारी
जोशीमठ विनाश के कगार पर भले ही नहीं हो मगर उससे बहुत दूर भी नहीं है . उसके ख़ूबसूरत चेहरे पर आयी दरारों ने पूरे शरीर को अपनी गिरफ़्त में जकड़ना शुरू कर दिया है . वहाँ चारों तरफ़ विनाश का ख़ौफ़ पसरा हुआ है और हर आदमी विनाश की सम्भावित आहट से डरा और घबराया हुआ है . हर एक के ज़ेहन में यह सवाल है और स्वाभाविक भी है कि उनके इस प्रिय शहर का क्या होगा ? क्या यह काल की गणना में अतीत का कोई पौराणिक नगर हो जाएगा और क्या इसका आकर्षक वर्तमान ही इसके दर्दनाक विनाश की करुण कथा लिखेगा ? विस्थापन की किसी भी संभावना से यहाँ लोग थर्रा उठते हैं और एक दूसरे से पूछते हैं कि उनके शहर का क्या होगा , मेहनत की पूँजी से खड़े किए गए उनके आसियानों का क्या होगा ? क्या उनका घर , उनका शहर अब उनसे हमेशा के लिए छूट जाएगा और उन्हें किसी अज्ञात जगह पर विस्थापित कर दिया जाएगा ? उम्र की ढलान पर खड़े बुज़र्गों के चेहरे पर अपनी जड़ों से उखड़ने का दर्द देखा भी जा सकता है और पढ़ा भी जा सकता है । अपने घरों से विस्थापित होकर राहत शिविरों में रह रहे लोगों की आँखें हर वक़्त डबडबायी ही रहती हैं और एक एक कमरों में क़ैद हो गयी उनकी ज़िंदगी के पाँव कमरे के किवाड़ों से अक्सर टकरा जाते हैं . हर कोई सवाल करता है कि आप ही बताइए इतने लोग एक कमरे में कैसे ऐडजस्ट हो सकते हैं ? कहाँ सोएँ , कहाँ पर बच्चे पढ़ें कहाँ खाना बनाएँ , न टायलेट की सुबिधा है न पानी की , शायद कभी कोई गुनाह किया होगा सो उसकी सज़ा मिल रही है .ठंड बढ़ गयी है दो दिन पहले हुई बारिश और बर्फ़बारी ने तापमान को और गिरा दिया है । राहत शिविरों में रहना मुश्किल हो रहा है , किवाड़ों के छिद्रों से आ रही बर्फ़ीली हवा ने कमरों को बेहद ठंडा कर दिया है । मौसम की दुशवारियों ने कठिनाइयों को बढ़ा दिया है . कल की चिंता रात भर जागरण कराती है और सुबह अनिश्चित भविष्य के अनगिनत सवाल लेकर सामने खड़ी हो जाती है . राहत शिविरों में रहते हुए लोग अपने हमेशा के लिए छूट गए , दरकते हुए घरों कोदेखते रहते हैं और बच्चे उन्हीं गलियों , घरों में जाने की ज़िद करते हैं जहाँ कल तक वह अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलते थे लेकिन अब उन गलियों में जाना कभी मुमकिन भी नहीं और जो घर कभी उनके अब हो भी नहीं सकते . उदास आँखों में उजड़े हुए सपनों के खंडहरों को देखना बरबस ही रुला देता है . और फिर सवाल उठता है कि आख़िर जोशीमठ की इस दशा के लिए ज़िम्मेवार कौन है ? ज़ाहिर है कि यह परिस्थिति एक दिन या एक साल में तो बनी नहीं बल्कि जोशीमठ के विनाश की यह इबारत कई सालों से लिखी और पढ़ी जा रही है . वक़्त ने कई बार और कई संकेतों से समझया और चेताया भी लेकिन किसी भी सरकार और नीतिनिर्माताओं ने प्रकृति के इशारों और प्रकृति विज्ञानियों की चेतावनियों को सुना- अनसुना कर दिया . अब जब विनाश के बादल फटने लगे हैं तब फ़िज़ाओं में अनेक सवाल मुँह खोल रहे हैं .और यह भी कि भरारीसेन में विधानसभा के तीन दिन के सत्र में करोड़ों रुपया फूँक देने वाली सरकार जोशीमठ के संकट में पड़े लोगों के लिए उतनी ही उदार क्यों नहीं है ?यह भी सवाल है कि क्या जोशीमठ का संकट केवल जोशीमठ का संकट है या यह पूरी हिमलेयन बेल्ट को अपनी गिरफ़्त में ले रहा है ? पहाड़ों पर फैलती हुई दरारें और दरकते हुए घर यह बता रहे हैं कि आने वाले कल में पहाड़ का कोई भी शहर जोशीमठ हो सकता है और कर्णप्रयाग से होती हुई दरारें ग़ैरसेन , अलमोडा , नैनीताल , रानीखेत या कहीं और किसी नाम , गुमनाम शहर क़स्बे , गाँव तक पहुँच ही सकती हैं .संकट वाक़ई बड़ा है बशर्ते हम जोशीमठ की सर्द रातों का दर्द महसूस करें और राहत शिविरों से रह रह कर आ रही सिसकियों को सुनें और उसका अर्थ भी समझें .
उत्तराखंड राज्य के लिए यह संभव हो जाना चाहिए था कि वह अपने नागरिकों की प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा करने , निपटने और तत्काल सहायता पहुँचाने का प्रभावी तंत्र विकसित कर पाता . पर वह ऐसा करने में अभी तक तो विफल ही साबित हुआ है . यही कारण है कि हर साल आने वाली प्राकृतिक और मानवजनित आपदा से भारी जानमाल का नुक़सान होता है . और सरकार फिर चाहे वह राज्य की हो या केंद्र की इसी बात पर अपनी पीठ थपथपाती है कि उसने प्रभावित इलाक़ों और लोगों तक राहत पहुँचा दी या कि नुक़सान का आँकलन कर लिया है .समय तो जोशीमठ का अपराधी है ही पर समकालीन सरकारें , योजनाकार भी इस गुनाह में बराबर के भागीदार हैं .पहाड़ को विनाश के कगार पर ले आयीं विशाल योजनाओं के शिलान्यास और उदघाटन के पत्थरों पर लिखे मुख्यमंत्रियों , केंद्रीय मंत्रियों के नामों की फ़ेहरिस्त गवाही दे रही है कि पहाड़ों को विनाश के मुहाने पर कौन , कौन और कब , कब लेके आया है . बहरहाल , लेख जारी है** एडवोकेट दिनेश तिवारी सोशल एक्टिविस्ट हैं