परंपरागत रिंगाल हस्तशिल्प को नहीं मिली सजावटी सामान की संजीवनी ?
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
रिंगाल उत्तराखण्ड का बहुउपयोगी पौधा है. रिंगाल पर्यावरण संतुलन बनाए रखने के अलावा भूस्खलन को रोकने में भी सहायक है. रिंगाल को उत्तराखण्ड के लोकजीवन का अभिन्न अंग कहा जाए तो गलत नहीं होगा. कमेट और स्याही से लिखने वाली कलम, सामान लाने वाली और संजोकर रखने वाली विभिन्न तरह की टोकरियां, अनाज साफ़ करने वाला सूपा और रोटी रखने की छापरी, फूलदेई की टोकरी हो या फिर झाड़ू, खाना रखने की टोकरी और घर की छत तक रिंगाल के कई उपयोग हैं. पहाड़ में खेती और पशुपालन के सिमटने से संकट में आए परंपरागत रिंगाल उद्योग को सजावटी सामान अब रिंगाल से बनने वाले सूप, मोस्टे और डोके की जगह आकर्षक सजावटी सामान ने ली है। रिंगाल से पहले जहां केवल पांच या छह प्रकार का सामान बनाया जाता था वहीं अब 150 से अधिक प्रकार का सामान बनाया जा रहा है। बाजार में इसकी अच्छी मांग के चलते रिंगाल हस्तशिल्प के कारोबार से जुड़े सैकड़ों परिवारों की आजीविका इसी परंपरागत हुनर से फिर से चलने लगी है।उत्तराखंड में बहुतायत पाए जाने वाले रिंगाल का खेती और पशुपालन से संबंधित सामग्री बनाने में उपयोग होता था। रिंगाल से मुख्य रूप से सूप, डोके/डलिया और मोस्टे बनाए जाते थे। इस हस्तशिल्प से मुनस्यारी के सबसे अधिक परिवार जुड़े थे। मुनस्यारी में डोके, सूप और मोस्टे बनाने वाले हस्तशिल्पी जिलेभर के गांवों में जाकर रिंगाल से बनी सामग्री बेचते थे। पहाड़ में खेती और पशुपालन का कामकाज सिमटा तो रिंगाल से गुजर-बसर करने वाले हस्तशिल्पी परिवारों की आजीविका पर भी संकट आ गया। हालात यह हो गए कि पिछले डेढ़ से दो दशक के भीतर 50 फीसदी लोगों को अपने इस परंपरागत शिल्प को हमेशा के लिए छोड़ना पड़ा, सरकार द्वारा रिंगाल को कुटीर उद्योग के रूप में विकसित करने के ठोस प्रयास नहीं किये गए हैं. न ही रिंगाल उद्योग में लगे व्यक्तियों, संस्थाओं को उचित प्रोत्साहन ही दिया जाता है. *हम रिंगाल से बनी छोटी बड़ी टोकरियों को बेचने के लिए गांव-गांव जाते हैं। धूप हो या सर्दियां या फिर बारिश ही क्यों न हो, टोकरियों की बिक्री करना हमारे लिए बहुत जरूरी है। जब ये नहीं बिकती तो मुझे रोना आ जाता है। बड़ी टोकरियों (कंडियों) की बिक्री कम होने का कारण, कृषि का लगातार कम होना भी है। लोग खेती नहीं कर रहे, खेत बंजर हो रहे हैं, ऐसे में इन्हें कौन खरीदेगा। इनका इस्तेमाल खेती में ज्यादा होता है। वैसे छोटी टोकरियां बिक जाती हैं, जिनमें गांव में लोग रोटियां रखते हैं। रुद्रप्रयाग के खड़पतिया बुजुर्ग गांव की मकानी देवी रिंगाल से टोकरियां बनाने की कला और इससे जुड़ी आजीविका पर बात कर रही थीं। खड़पतिया बुजुर्ग गांव चोपता से करीब आठ किमी. पोखरी रोड पर है। यहां रहने वाले कई परिवार टोकरियां बनाने के हस्तशिल्प से जुड़े हैं। कुछ लोग रोजगार के सिलसिले में जिला और प्रदेश से बाहर भी रह रहे हैं। मुख्य मार्ग से करीब एक किमी. पर बसे गांव में रहने वालीं मकानी देवी बताती हैं, वो अभी टोकरियां बनाना सीख रही हैं, उनकी सास टोकरियां बनाती हैं। उनका काम टोकरियों को गांवों में जाकर बेचना है। पर, यह काम मुझे पसंद नहीं है। हमें कपड़ों की सिलाई जैसे अन्य विकल्पों पर सोचना होगा।“सबसे मुश्किल और खतरे वाला काम है रिंगाल की तलाश। यहां से लगभग 35-40 किमी. दूर श्रीतुंगनाथ जी के पास के जंगल में रिंगाल लेने के लिए गांव के लोग जाते हैं। वहां घनघोर जंगल में कई किमी. पैदल चलते हैं। वहां ‘शेर’ जैसे जानवरों का डर है। रातभर आग जलाकर खुले आसमान के नीचे बैठना होता है। बारिश में भी भींग जाते हैं। हम रिंगाल के लिए कितने कष्ट सहते हैं, यह तो या हम जानते हैं या फिर हमारा भगवान जानता है। तीन दिन की कड़ी मेहनत के बाद रिंगाल के तनों को पीठ पर लादकर सड़क तक लाते हैं। फिर इनको बनाते हैं। इतनी मेहनत और जोखिम उठाकर बनाई टोकरियां या तो बिकती नहीं हैं या फिर इनको कम पैसों में खरीदा जाता है,” मकानी देवी कहती हैं।गांव में ही करीब 40 साल से रिंगाल की टोकरियां बनाकर आजीविका चला रहे सुनील बताते हैं, जंगलों से रिंगाल लाकर घर में सामान बनाते हैं, काफी समय लगता है। गांवों में फेरी लगाते हैं। कभी पूरा माल निकल जाता है, कभी नहीं भी। पर इस काम से गुजारा चल रहा है। उनके पिताजी इसी काम को करते थे। किसी भी कला को सीखना जीवन में काम आता है। कोई भी काम हो, सीखना पड़ता है। कला से व्यक्ति आगे बढ़ता है। नौकरी मिल गई तो ठीक है, नहीं तो किसी कला या कौशल से रोजगार चलाना चाहिए। इस काम को आगे बढ़ाने में काफी समय लगेगा, कोशिश करेंगे। रिंगाल से टोकरियां, कंडियां बनाने की कोई मशीन नहीं है। मशीन बन भी जाए तो बढ़िया है, काम अच्छा चलेगा,” सुनील कहते हैं। सावन भादौ में रिंगाल नहीं मिलने से होने वाली दिक्कतों का जिक्र करते हुए सुनील ने बताया, बरसात में जंगलों में नहीं जा पाते। दो महीने कोई काम नहीं होता। रोजगार बंद रहता है। उनके घर में दो लोग इस हस्तशिल्प से जुड़े हैं, महीने में लगभग सात-आठ हजार रुपये की आय हो जाती है। यानी एक व्यक्ति की आय लगभग साढ़े तीन हजार है।बताते हैं, एक दिन में छोटी वाली चार-पांच टोकरियां बना लेते हैं, पर बड़ी टोकरी (कंडी) एक ही बन पाती है। छोटी टोकरियां 80 से सौ रुपये प्रति पीस बिक जाती है। बड़ी टोकरियां साइज के अनुसार तीन सौ से पांच सौ रुपये तक में बिकती हैं। एक बड़ी टोकरी बनाने में चार घंटे से ज्यादा समय लगता है। इसमें रिंगाल लाने के लिए लगा समय नहीं जोड़ा है। यहां से हम छह-सात, कभी आठ या दस लोग रिंगाल लेने जाने के लिए गाड़ी बुक करते हैं। प्रति व्यक्ति सात-आठ सौ रुपये का खर्चा आता है। यह जंगल चमोली जिला में है। तीन से चार दिन लग जाते हैं रिंगाल लाने में। एक समय में आठ से दस टोकरियां बनाने का रिंगाल ही ला पाते हैं। दो दिन जंगल में रुकना होता है। एक आध हफ्ते में फिर जाएंगे। ज्यादा रिंगाल लाने के लिए ताकत चाहिए। हम रिंगाल को पीठ पर लादकर 15 से 20 किमी. पैदल चलते हैं। इसके लिए परमिशन लेनी होती है। इसी गांव में रिंगाल हस्तशिल्प से जुड़ीं एक और महिला, जिनका नाम भी मकानी देवी हैं, ने बताया कि टोकरियां बनाते समय हाथ में चोट लगने का खतरा रहा है। रिंगाल को छीलने में काफी सावधान रहना पड़ता है। इसको बनाने में बहुत ताकत लगती है। रिंगाल के छीले हुए धारदार तने हाथ से खींचकर कसे जाते हैं। टोकरी बनाने के लिए पहले आधार बनाना होता है और फिर बुनाई करनी होती है। इससे हमारी आजीविका चलती है, पर मेहनत के हिसाब से पैसा नहीं मिल पाता। हमारे पूर्वज भी यही कार्य करते थे। यहां आसपास रिंगाल नहीं मिलता। रिंगाल को लाना सबसे बड़ी चुनौती है जब हम गांव में पहुंचे, तब मकानी देवी घर के आंगन में टोकरियां बना रही थीं। उन्होंने घर के पास बड़ी टोकरियां रखी थीं। बताती हैं, गांवों में फेरी लगाने के लिए आठ-दस टोकरियां लेकर जाते हैं। कभी सभी टोकरियां बिक जाती हैं और किसी दिन एक भी नहीं बिकती। हमारे पास खेतीबाड़ी नहीं है। हमारा परिवार इसी कला पर निर्भर है। मकानी देवी हमें रिंगाल को दरांती से छीलकर दिखाती हैं, जिसमें काफी सावधानी बरतने की आवश्यकता है। टोकरी बनाने के लिए रिंगाल को लकड़ी के हथोड़े से पीटकर चपटा किया जाता है।कुल मिलाकर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे, रिंगाल हस्तशिल्प को आगे बढ़ाने के लिए उत्पादों को बाजार उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। विभिन्न उपयोगों के लिए रिंगाल उत्पादों के आकर्षक डिजाइन का प्रशिक्षण देने, कारीगरों को रिंगाल उपलब्ध कराने, उनके कार्यों को पहचान दिलाने की जरूरत है। मेहनत के लिहाज से कारीगरों की आय में वृद्धि के लिए अभिनव प्रयोगों की दरकार है। *साभार- रेडियो केदार रिंगाल के उत्पादों में प्लास्टिक को जनजीवन से पूरी तरह बेदखल करने की संभावना है, सरकारों की इच्छाशक्ति के बगैर फिलहाल इसकी सम्भावना कम ही दिख रही है. हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाना वाला रिंगाल किसी सोने-चांदी से कम नही है. लेकिन सोने का दाम आसामन छू रहा है और रिंगाल उत्तराखंड के गांवों में ही दम तोड़ रहा है. लिखने की कलम हो या घर मे चार चांद लगाने वाले सजावटी सामान, टोकरियां हो या पहाड़ों में घास व गोबर लाने के लिए घीडे सब रिंगाल से ही बनता है. सब बनता तो है और पहाड़ी क्षेत्रों में रिंगाल के काश्तकार इसको बनाते भी हैं, लेकिन ये अपनी जरूरतें पूरा करने तक ही सीमित रह गया है. सरकार इस कला को आज तक बाजार नहीं दिला पाई है.। लेखक वर्तमान में दून कालेज में कार्यरत हैं