उत्तराखंड के पहले अरबपति दान सिंह ‘मालदार’

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
देश के सबसे अमीर उद्योगपतियों में टाटा, बिरला, अड़ानी, अंबानी जैसे घरानों का नाम आता है। लेकिन उत्‍तराखंड के पहले अरबपति दान सिंह बिष्ट का जन्म पिथौरागढ़ जिले के वड्डा में 1906 में हुआ था. उनके पिता ने उस समय भारत-नेपाल बॉर्डर के मामूली से कस्बे झूलाघाट में घी बेचने की छोटी सी दुकान खोली. दान सिंह के पिता देब सिंह दक्षिणी नेपाल के बैतड़ी जिले से पलायन कर यहाँ पहुंचे थे. दान सिंह 1947 में भारत के आजाद होने तक भी नेपाली नागरिक ही बने हुए थे. 12 साल की उम्र में ही दान सिंह ने अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी. वे एक ब्रिटिश लकड़ी व्यापारी के साथ वर्मा जाकर व्यापार के गुर सीखने लगे. वर्मा तब ब्रिटिश भारत का हिस्सा हुआ करता था. यहाँ उन्होंने लकड़ी के व्यापार का अंदरूनी गणित सीखा. यहीं पर उन्होंने साहब लोगों के रहन-सहन के तौर तरीके भी सीखे, जिसने आगे चलकर इस व्यापार का छत्रप बनने में उनकी मदद की. जब दान सिंह वर्मा से लौटे तो उनके पिता ने अपने जीवन का एक बड़ा दांव खेला. 19 सितम्बर 1919 को झूलाघाट के मामूली से दुकानदार देब सिंह बिष्ट ने एक ब्रिटिश कंपनी से उसका 2000 एकड़ का फार्म खरीदने के लिए कर्ज उठाया. दान सिंह कैप्टन जेम्स कॉर्बेट की एस्टेट से सटी बेरीनाग एस्टेट खरीदने में कामयाब रहे. दान सिंह ने एस्टेट खरीदने की इस प्रक्रिया का बेहतरीन प्रबंधन किया. उन्होंने न सिर्फ यह टी एस्टेट खरीदने में कामयाबी पायी बल्कि चीनी चाय विक्रेताओं का वह गुप्त नुस्खा भी ढूंढ निकाला जिससे चीनीयों ने चाय बाजार में भारतीयों पर बढ़त बनायी हुई थी. उनके मैनेजर ने वह मसाला ढूँढ निकाला जिसके इस्तेमाल से चीनी लोग अपनी चाय में वह दिलकश रंग और जायका पैदा किया करते थे जिसका कि ज़माना मुरीद हुआ करता था. दान सिंह की चाय की लोकप्रियता तो बढ़ी ही वे चाय की दुनिया के उभरते सितारे बन चले. जल्द ही दान सिंह बिष्ट की बेरीनाग चाय भारतीय, चीनी और ब्रितानी बाजार की नंबर वन ब्रांड बन गयी. भारत सरकार के टी बोर्डों के दस्तावेजों में इसका जिक्र आज भी देखा जा सकता है. 20 मई 1924 को 18 साल कि उम्र में दान सिंह ने ब्रिटिश इंडियन कॉर्पोरेशन लिमिटेड से एक शराब की भट्टी (ब्रेवरी) खरीदी. इसकी 50 एकड़ जमीन में उन्होंने अपने और अपने पिता के लिए दफ्तर और घर का निर्माण शुरू किया. दान सिंह बिष्ट ने कठिनाई भरे पहाड़ी इलाकों में बहने वाली नदियों पर परिवहन की दिशा में तकनीकी का का ईजाद किया. उन्होंने पानी के रास्ते इमारती लकड़ियों के परिवहन और रस्सी से बने पुलों की जिस तकनीक का इस्तेमाल किया उस पर आज भी चर्चा की जाती है. उन्होंने किसनई से मेहंदीपत्थर तक एक शॉर्टकट का निर्माण किया, जिसे स्थानीय स्तर पर परिवहन को आसान बनाने के कारण ‘बिष्ट रोड’ कहा जाता है1947 में बिष्ट ने अपनी माँ और पिता के नाम पर श्री सरस्वती देब सिंह उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, पिथौरागढ़ का निर्माण किया. स्कूली शिक्षा के लिए अपनी तरह का यह पहला प्रयास था. शहर के केंद्र में फुटबॉल के मैदान के लिए एक कीमती भूखंड खरीदा गया. भूमि, भवन, और फर्नीचर, और अन्य जरूरतों के लिए स्कूल को शुरुआती फंड भी दिया गया. जब तक इसके स्कूल के पहले छात्रों के बैच ने अपनी बारहवीं तक पढ़ाई पूरी की तब तक नैनीताल में देब सिंह बिष्ट कॉलेज खोला दिया गया था. इस दौरान उन्होंने श्रीमति सरस्वती बिष्ट छात्रवृत्ति बंदोबस्ती ट्रस्ट भी बनाया. छात्रवृत्ति और स्कूल आज भी जारी हैं. 24 अक्टूबर 1949 को दान सिंह बिष्ट द्वारा उनकी मां के नाम पर स्थापित श्रीमति सरस्वती बिष्ट छात्रवृत्ति बंदोबस्ती ट्रस्ट पिथौरागढ़ आज भी जिले का एकमात्र ट्रस्ट है. यह एक शैक्षिक ट्रस्ट है और द्वितीय विश्व युद्ध में शहीद हुए पिथौरागढ़वासियों के बेटों और बेटियों को छात्रवृत्ति प्रदान करता है. भारतीय स्वतंत्रता के कुछ समय बाद उन्होंने वेलेज़ली गर्ल्स स्कूल को खरीदा और कुछ नयी इमारतों का निर्माण करने के बाद 1951 में इसे एक कॉलेज में परिवर्तित कर दिया गया. कॉलेज को उनके दिवंगत पिता देव सिंह की स्मृति में बनाया गया था. आज इसे कुमाऊं विश्वविद्यालय के डीएसबी कैम्पस कॉलेज के नाम से जाना जाता है. कुमाऊं विश्वविद्यालय की स्थापना 1973 में की गई थी. जब इसमें देव सिंह बिष्ट गवर्नमेंट कॉलेज, जिसे आमतौर पर डिग्री कॉलेज कहा जाता था, समाहित किया गया. जिसकी स्थापना 1951 में दान सिंह बिष्ट ने अपने दिवंगत पिता देव सिंह बिष्ट की स्मृति में की थी। दान सिंह बिष्ट ने गणितज्ञ डॉ. ए.एन. सिंह को इसके पहले प्राचार्य के रूप में चुना और निर्धन छात्रों के लिए ‘ठाकुर दान सिंह बिष्ट छात्रवृत्ति’ की भी शुरुआत की. इसका उपयोग आज भी किया जाता है. लाखों लोग अपने कॉलेज के संस्थापक को क्षेत्र के पहले अरबपति परोपकारी उद्यमी के रूप में याद करते हैं. दान सिंह इन सभी युवाओं के लिए एक आदर्श हैं. डीएसबी कॉलेज, जो अब कुमाऊं विश्वविद्यालय का प्रमुख परिसर है, की स्थापना 1951 में पूरे क्षेत्र में पहले उच्च स्तर के कॉलेज के रूप में की गई थी. कॉलेज की स्थापना 12 एकड़ भूमि और भवन की खरीद की गई थी, जिसकी कीमत लगभग 15 लाख रुपये थी. शुरुआती खर्च और वेतन के लिए 50000 रुपये रखे गए थे. प्रख्यात पर्यावरणविद् और कुमाऊं विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्रोफेसर ने दान सिंह बिष्ट को अपनी पुस्तक नैनीताल बेकन्स में उत्तराखंड में ‘उच्च शिक्षा का अग्रदूत’ कहा है. अपने दादा राय सिंह बिष्ट की स्मृति में उन्होंने तीर्थयात्रियों के लिए पहली तीन मंजिला धर्मशाला या विश्राम गृह का निर्माण भी कराया था. वे बेरीनाग में कई अस्पतालों और मरीजों को आर्थिक मदद भी दिया करते थे. दान सिंह ने बेरीनाग में एक पशु चिकित्सालय 28 अक्टूबर 1961 को दान में दिया गया था, यह एक एकड़ से अधिक जमीन पर बनी इमारत थी. बेरीनाग में एक कॉलेज के लिए उन्होंने अपने भाई के नाम पर 30 एकड़ प्रमुख भूमि दान में दी. ऐसे ही एक स्कूल, एक खेल के मैदान, अस्पताल, और विभिन्न सरकारी कार्यालयों के लिए भी उनके द्वारा भूमि दान में दी गयी, जिसमें बेरीनाग में वन विभाग का रेस्ट हाउस भी शामिल था, क्वीतड़ में उनके पुश्तैनी गांव में पीने का पानी, बेरीनाग में विभिन्न औषधालय उनके द्वारा खोले गए. असंख्य लोग हैं जिनकी शिक्षा का खर्च उन्होंने उठाया चाहे वह जरूरतमंद रहे हों या योग्य. बेरीनाग कस्बे के स्कूलों से लेकर अस्पतालों, खेल के मैदानों, पार्कों, धर्मार्थ केंद्रों, डिस्पेंसरियों तक हर एक सार्वजनिक जगह डीएसबिष्ट एंड संस की ऋणी हैंब्रिटिश भारत में उन्हें ‘भारत के टिम्बर किंग’ के नाम से भी जाना जाता है. उन्हें पूरे भारत में एक चैंपियन कारोबारी का दर्जा हासिल था. स्कूल को बनवाने के बाद उन्होंने स्कूल के पास की जमीन खरीद कर एक खेल के मैदान भी बनवाया. ये वही मैदान है जिसने अनेक ऐसी प्रतिभाओं को जन्म दिया जिन्होंने अतंर्राष्ट्रीय स्तर ख्याति प्राप्त की. इसके अलावा उन्होंने अपनी मां के नाम पर छात्रों के लिए एक छात्रवृती देने वाले ट्रस्ट की शुरुआत की जिसे श्रीमती सरस्वती बिष्ट छात्रवृति बंदोबस्ती ट्रस्ट के नाम से जाना गया.दान सिंह ने बहुत धन संपत्ति अर्जित की, बहुत दान किये लेकिन आज उनके नाम से ज्यादा लोग परिचित नहीं हैं. इसकी वजह ये है कि उनके निधन के बाद उनकी संपत्ति को संभालने वाला कोई ना बचा और ना ही उनके जीते जी आजाद भारत में उन्हें किसी तरह की सरकारी मदद मिली.आज भले ही दान सिंह मालदार का नाम बहुत लोग नहीं जानते, भले ही उनका साम्राज्य खत्म हो गया लेकिन उन्होंने जो जन कल्याण किये उनके द्वारा आज भी उन्हें याद किया जाता है और आज भी उन्हें लोग सम्मान देते हैं 10 सितंबर 1964 को दान सिंह मालदार का निधन हो गया। दान सिंह बिष्ट का कोई बेटा नहीं था। मृत्‍यु के दौरान उनकी बेटियां कम उम्र की थीं, जिस वजह से उनकी कंपनी डीएस बिष्ट एंड संस की जिम्मेदारी छोटे भाई मोहन सिंह बिष्ट और उनके बेटों ने संभाली। दान सिंह के जीवन पर जगमणि पिक्चर्स द्वारा एक हिंदी फिल्म भी बनाई गई थी। जिसके लिए दान सिंह से ही 70,000 रुपये उधार लिए थे। राष्ट्र निर्माण हेतु आपके द्वारा किए गए रचनात्मक कार्यों को सदैव स्मरण किया जाएगा. विनम्र श्रद्धांजलि।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।