उत्तराखंड में पशु चिकित्सा सेवाएं सुदृढ़ करने की दरकार

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पर्वतीय क्षेत्र में एक दौर में पशुपालन आय का सबसे सशक्त माध्यम था, लेकिन बदलते वक्त की मार इस पर भी पड़ी है। पलायन के चलते गांव खाली होने से पशुपालन कम हुआ है तो वन्यजीवों के हमले और पशु चारे की उचित व्यवस्था का अभाव भी इस राह में बाधक बना है। यद्यपि, अब धीरे-धीरे परिस्थिति बदल रही है और लोग पशुपालन की तरफ उन्मुख होने लगे हैं, लेकिन पशु चारे की व्यवस्था का बोझ महिलाओं के सिर पर ही अधिक है। उत्तराखंड को अस्तित्व में आए 22 वर्ष हो चुके हैं, लेकिन कई मोर्चों पर अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। इन्हीं में एक क्षेत्र है पशुपालन। यद्यपि, बदली परिस्थितियों में इस दृष्टिकोण से कुछ काम हुआ है, लेकिन अभी लंबा सफर तय करना होगा। साथ ही राज्य में पशु चिकित्सा सेवाओं को भी मजबूती देने की जरूरत है। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य की नई सरकार इस दिशा में गंभीरता से कदम उठाएगी। एक दौर में पशुपालन उत्तराखंड की आर्थिकी का महत्वपूर्ण जरिया हुआ करता था। इससे दूध-घी की प्रचुरता तो रहती ही थी, खेती के लिए गोबर के रूप में खाद भी मिलती थी। जाहिर है कि इससे खेती भी मजबूत स्थिति में थी। वक्त ने करवट बदली और पलायन के चलते गांव खाली होने के साथ ही कृषि एवं पशुपालन बुरी तरह प्रभावित हुआ। पलायन आयोग के आंकड़े ही बताते हैं कि प्रदेश में 1702 गांव निर्जन हो चुके हैं। बड़ी संख्या में गांवों की संख्या ऐसी है, जहां आबादी अंगुलियों में गिनने लायक ही रह गई है। इसके चलते खेत-खलिहान बंजर में तब्दील हुए तो पशुपालन भी निरंतर सिमटता चला गया।यद्यपि, सरकार ने भी पशुपालन को बढ़ावा देने के लिए प्रयास तेज किए तो राज्य में दुग्ध उत्पादन बढ़ा है। ये बात अलग है कि अभी पशुपालन को बढ़ावा देने के लिए काफी कुछ प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। असल में विषम भूगोल वाले उत्तराखंड में पशुपालकों की सुविधा के लिए पशु चिकित्सा सेवाएं उस दृष्टि से आकार नहीं ले पाई हैं, जिसकी दरकार है। पशुपालन को लोग अधिक महत्व दें, इसके लिए यह आवश्यक है कि उन्हें गांव के नजदीक पशु चिकित्सा सेवाएं भी मिलें। इन सेवाओं को न्याय पंचायत स्तर तक ले ले जाने की जरूरत है। राज्य में न्याय पंचायतों की संख्या 670 है। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में कृषि के साथ पशुपालन एक ऐसा सेक्टर है जहां से बड़ी संख्या में प्रदेश के लोग आजीविका कमाते हैं. खास तौर पर पहाड़ी जनपदों में तो कृषि और पशुपालन ही आजीविका के साधन हैं. कृषि सेक्टर को लेकर तो राज्य सरकार ने काफी योजनाओं और कार्यक्रमों को प्राथमिकता दी है. लेकिन पशुपालन सेक्टर में विभाग की रीढ़ माने जाने वाले वेटरनरी डॉक्टर्स की भर्ती में ही सरकार और शासन लापरवाह नजर आ रहे हैं. उत्तराखंड में गाय और भैंसों की संख्या को देखें तो अनुमानत: इनकी संख्या करीब 27 लाख है. ऐसे में पशु चिकित्सकों के पास न केवल इन पशुओं के वैक्सीनेशन का काम है बल्कि इनकी टैगिंग और ऑनलाइन जानकारियां दुरुस्त रखने की चुनौती भी है. इसके अलावा पशुओं के उपचार से लेकर तमाम योजनाओं को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी भी उनके कंधों पर ही है. साल 2019 से पहले साल 2012 में पशुधन गणना की गई थी. इस दौरान प्रदेश में दुधारू पशुओं की संख्या कुल 20 लाख थी, लेकिन 7 साल के अंतराल के बाद जब साल 2019 में पशु गणना हुई. इसमें प्रदेश में दुधारू पशुओं की संख्या घटकर 18 लाख 52 हज़ार हो गई. इस तरह साल 2019 की पशु गणना के आधार पर प्रदेश में दुधारू पशुओं की संख्या में 1,47,877 की गिरावट साफ देखी जा सकती है. साल 2019 की पशुधन गणना रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में दुधारू पशुओं की संख्या में 7% तक की गिरावट देखने को मिली है. वहीं महेशवंशियों (भैंस) की संख्या में भी 12% की कमी आई है. अब उत्तराखंड में दस्तक दे दी है.सिर्फ हरिद्वार जिले में ही 36 पशुओं की मौत हो गई है और 1200 से ज्यादा संक्रमित पाए गए हैं. जी मीडिया संवाददाता के अनुसार, हरिद्वार जिले के अलग-अलग इलाकों में लंपी वायरस से 36 पशुओं की मौत हो चुकी है और 12 सौ से ज्यादा पशु इस बीमारी से संक्रमित बताए जा रहे हैं. हालात यह हैं कि दुग्ध उत्पादन में 10 प्रतिशत की कमी आई है.पशुओं की इस जानलेवा बीमारी के मामले सामने आने के बाद पशुपालन विभाग के अधिकारी भी हरकत में आ गए हैं. प्रदेश में अभी तक बीमार पशु का घर-द्वार पर इलाज कराने की सुविधा नहीं है। किसानों को बीमार पशु को उपचार के लिये पशु चिकित्सालय या पशु सेवा केंद्र में ले जाना पड़ता है, जिससे किसानों को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। दुर्गम क्षेत्रों में बीमार पशुओं को समय पर इलाज न मिलने के कारण पशुपालकों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है।गौरतलब है कि पशुओं के इलाज के लिये वर्तमान में 323 पशु चिकित्सालय संचालित हैं। इसके अलावा 770 पशु सेवा केंद्र, 682 कृत्रिम गर्भाधान केंद्र, चार पशु प्रजनन फार्म हैं। दुर्गम क्षेत्रों में बीमार पशुओं को समय पर इलाज न मिलने के कारण पशुपालकों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ता है।
लेखक-वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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