*कविता* आना-जाना /दिनेश कर्नाटक

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● दिनेश कर्नाटक

कल अचानक पड़ौस वाले बुबु का जिक्र आया
याद आया कितने खुशमिजाज और मिलनसार थे बुबु
बुबु के साथ आमा की याद आई
याद आया कि कैसे प्रेम और स्नेह से भरी हुई थी आमा
फिर याद आया कि आमा-बुबु ही नहीं थे
बहुत से और भी लोग थे हमारे आस-पास
जो धीरे-धीरे, चुपके-चुपके जाते रहे

एक प्रेम गोस्वामी थे जो रामलीला के समय आते थे
हर बार रामलीला के लिए कुछ न कुछ साज-समान लाते
सुमंत का पाठ खेलते
और ऐसे उसमें खो जाते थे कि
सुमंत हमारी रामलीला का बड़ा किरदार बन गया था
एक पंजाबी दुकानदार थे
जो दुकानदार के साथ कलाकार भी थे
और गत्त्ते पर राजमहल, सिंहासन, जंगल आदि बनाते थे लोहार शेर राम था और उसके आफर से लोहे को पीटने की आवाजें आती रहती थी
डबराल साहब थे जो सभी से प्रेम से बात करते थे
सभी को सम्मान देते थे
एक कर्नल साहब थे बूढ़े से मगर साफ-सुथरे कपड़े पहने हुए
शाम के समय अपनी छड़ी लेकर घूमने निकलते थे
और हम बच्चों को रोककर मुस्कराते हुए बात करते थे जिस घर को याद करता हूँ, जिस रास्ते की ओर बढ़ता हूँ
कई लोगों के चेहरे आंखों में घूमने लगते हैं
सोचकर आश्चर्य से भर जाता हूँ कि कितने लोग चले गए
मगर लोग तो अभी भी खूब हैं
पहले की तरह सब को नहीं जानता

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अब रामलीला सब लोग मिल-जुलकर नहीं करते
दो गुट बन गए हैं,
इस गुटबाजी के कारण अब रामलीला ही नहीं होती
लोगों को अब एक-दूसरे से काफी शिकायतें रहती हैं
पहले की तरह आपस में मिलना-जुलना नहीं होता

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अभी हम सब अपने-अपने जीवन में कुछ इस तरह व्यस्त हैं
जैसे हमें हमेशा यहीं रहना है
मगर चुपके से हम सब भी धीरे-धीरे जाते रहेंगे
ऐसे कि किसी को हमारा जाना खलेगा नहीं
रोज सूरज निकलेगा, दिन चमकेगा, चूल्हा जलेगा
और पृथ्वी अपने चक्के पर घूमती रहेगी
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