नेता बदले सरकारें बदलीं नहीं बदले सीमांत क्षेत्र के हालत
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
देश को आजाद हुए 75 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को अभी भी जर्जर सीमांत क्षेत्र के मिलम का भ्रमण कर लौटे एससीएसटी आयोग के उपाध्यक्ष ने वहां की बदहाल व्यवस्था का खाका खींचा। उन्होंने बताया कि लोगों को सीमांत गांवों तक पहुंचने के लिए आज भी 65 किमी तक पैदल चलना पड़ता है। इस सामारिक महत्व के क्षेत्र में मिलम तक सड़क बनाने की जिम्मेदारी 2008 में बीआरओ को सौंपी गई थी, 2012 तक इसे पूरा किया जाना था। 2022 तक भी इसका अता-पता नहीं है। इस क्षेत्र में सड़क की बात कौन कहे पैदल रास्तों के भी बुरे हाल हैं। लोग जान जोखिम में डालकर यहां से गुजरते हैं। एससीएसटी आयोग के उपाध्यक्ष गणेश मर्तोलिया अभी हाल में मिलम, दुंग, गनघर समेत माइग्रेशन गांवों से होकर लौटे हैं। वह पैदल इन गांवों में पहुंचे। उन्होंने मुंस्यारी-दुंग पैदल मार्ग की बदहालत के लिए लोक निर्माण विभाग की कार्यशैली पर सवाल उठाए। इस क्षेत्र में हर साल इन बदहाल रास्तों से हजारों पर्यटक मिलम ग्लेशियर तक आते हैं। हालात यह हैं कि पिछले छह माह से यहां लोक निर्माण विभाग का कोई जिम्मेदार अधिकारी नहीं गया है। सिर्फ एक अस्थायी लेबर के भरोसे इस पूरे क्षेत्र की जिम्मेदारी सौंपी गई है इतना ही नहीं मिलम और नंदा देवी ग्लेशियर को जोड़ने के लिए गोरी नदी पर बना लोहे का पुल दोनों तरफ से नदी की ओर झुक गया है। गार्डर से तार डालकर इस पुल से आवाजाही की जा रही है। जो बहुत ही जोखिम भरा और खतरनाक है। किसी बड़ी दुर्घटना को आमंत्रित कर रहा है। इस पुल को बने सिर्फ आठ साल हुए हैं, यह बनने के बाद ही झुकना शुरू हो गया था, अब हालात और खराब हो गए हैं। अक्टूबर तक यहां पर्यटक बड़ी संख्या में आते हैं और यह माइग्रेशन गांवों का उच्च हिमालय स्थित अपने गांवों को छोड़कर नीचे आकर बसने का सीजन भी है। लेकिन लोक निर्माण विभाग इस सबसे बेखबर बना हुआ है। मिलम तक सड़क बनाने के लिए 2008 में कार्य शुरू हुआ था, बीआरओ को यह सड़क 2012 तक पूरा करने का लक्ष्य दिया गया था, 2022 तक भी सड़क पहुंचने के कोई आसार नहीं हैं। इतना ही नहीं मिलम और नंदा देवी ग्लेशियर को जोड़ने के लिए गोरी नदी पर बना लोहे का पुल दोनों तरफ से नदी की ओर झुक गया है। गार्डर से तार डालकर इस पुल से आवाजाही की जा रही है। जो बहुत ही जोखिम भरा और खतरनाक है। किसी बड़ी दुर्घटना को आमंत्रित कर रहा है। इस पुल को बने सिर्फ आठ साल हुए हैं, यह बनने के बाद ही झुकना शुरू हो गया था, अब हालात और खराब हो गए हैं। अक्टूबर तक यहां पर्यटक बड़ी संख्या में आते हैं और यह माइग्रेशन गांवों का उच्च हिमालय स्थित अपने गांवों को छोड़कर नीचे आकर बसने का सीजन भी है। लेकिन लोक निर्माण विभाग इस सबसे बेखबर बना हुआ है। मिलम तक सड़क बनाने के लिए 2008 में कार्य शुरू हुआ था, बीआरओ को यह सड़क 2012 तक पूरा करने का लक्ष्य दिया गया था, 2022 तक भी सड़क पहुंचने के कोई आसार नहीं हैं। यदि सीमांत क्षेत्र से पलायन रोकना है तो काश्तकारों को जड़ी बूटी की खेती से जोड़ना होगा। इससे उन्हें रोजगार मिलेगा और इस सीमांत क्षेत्र के पुनः आबाद होने की संभावना इसी पर बनी हुई है। सरकार को चाहिए कि इन सीमांत और संवेदनशील गांवों को फिर से बसाने के प्रयास होने चाहिए तथा हर्बल कृषिकरण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए सरकार ने इन दो दशकों में जिले में विकास के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च कर दिये हैं। लेकिन आज भी सीमांत के लोग विभिन्न मूलभूत सुविधा से वंचित हैं।आज भी सीमांत क्षेत्र के कई गांवों में सड़क सुविधा नहीं है। बिजली, पानी, सड़क और स्वास्थ्य सुविधा के बुरे हाल हैं, पलायन निरंतर जारी है। मुख्यमंत्री का ताल्लुक सीमांत ज़िले पिथौरागढ़ के टुंडी गांव से है और वहां के लोगों को उम्मीद है कि अब गांव के दिन फिरेंगे क्योंकि गांव का बेटा राज्य का मुख्यमंत्री बना है.नेपाल की सीमा के बहुत करीब स्थित टुंडी मुख्यमंत्री का पुश्तैनी गांव है, लेकिन यहां पहुंचने के लिए सड़क न होने, इमरजेंसी की स्थिति में लोगों को मरीज़ों को मुश्किल हालात में कई किलोमीटर दूर ले जाने जैसे कारणों से यह ज़्यादा चर्चा में रहा है ज़मीन उपजाउ है इसलिए यहां आम, लीची और अन्य फलों की पैदावार अच्छी होती है, लेकिन सड़क से सीधा संपर्क न होने के कारण यहां के लोगों को अपनी उपज के लिए बाज़ार और दाम मौके पर नहीं मिल पाते. यह गांव शिक्षा के मोर्चे पर भी मदद चाहता है. सीमांत क्षेत्रों में पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से प्रदेश सरकार इनर लाइन का नए सिरे से सर्वे कराने की तैयारी कर रही हैकेंद्र से मिले दिशा-निर्देशों के क्रम में यह कदम उठाया जा रहा है। शासन ने इसके लिए सर्वे आफ इंडिया और भारतीय तिब्बत सीमा पुलिस को पत्र लिखकर उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ जिलों में इनर लाइन का सर्वे करने का अनुरोध किया है। प्रदेश में उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागढ़ जिलों में भारत-चीन की अंतरराष्ट्रीय सीमाएं मिलती हैं। इन सीमाओं से एक निश्चित दूरी पर केंद्र सरकार ने इनर लाइन तय की है। इस इनर लाइन के भीतर बिना परमिट किसी को प्रवेश नहीं करने दिया जाता।विशेषकर विदेशी पर्यटकों को यहां आने की अनुमति नहीं होती। केवल विशेष परिस्थिति में ही इन पर्यटकों को उनके दूतावास के पत्र के आधार पर ही बेहद सीमित क्षेत्रों के लिए यह परमिट दिया जाता है। प्रदेश में इनर लाइन के भीतर कई खूबसूरत पर्यटन स्थल हैं। इन पर्यटन स्थलों को बढ़ावा देने और सुरक्षा की दृष्टि से सीमांत गांवों को आबाद करने के लिए प्रदेश सरकार ने केंद्र से इन क्षेत्रों को इनर लाइन से बाहर करने का अनुरोध किया था।प्रदेश सरकार ने इस संबंध में केंद्र को पत्र लिखकर उत्तरकाशी की नेलांग और जादोंग घाटी, पिथौरागढ़ के नाभीढांग, ओम पर्वत, कुटी गांव और व्यास गांव के साथ ही चमोली के टिम्मरसैंण क्षेत्र, द्रोणागिरी, भविष्य बदरी को इनर लाइन से मुक्त करने के दृष्टिगत केंद्र के समक्ष पक्ष रखा। भारत चीन सीमा कारोबार की मंडी गुंजी के साथ नाभी, कुटी, रौड़कांग,बूंदी, नाभी,गब्र्यांग,नपलच्यू में इस समय 5 हजार से अधिक लोग रह रहे हैं। इन गांवों को देश के अन्य हिस्सों से जोड़ने वाली प्रमुख तवाघाट लिपूलेख सड़क दिनों से अधिक समय से मलघाट में पहाड़ी से आ रहे मलबे से बंद है।लगातार पिछले 1दिनों में कई बार हुई भारी बारिश के बाद पैदल रास्ते भी चलने लायक नहीं बचे हैं।तीन दिन पूर्व क्षेत्र के कई हिस्सों में मौसम का पहला हिमपात हुआ है। वहां 10हजार फीट से अधिक की ऊंचाई वाले गांवों में कड़ाके की ठंड पड़नी शुरू हो गई है। जिससे बच्चे,महिलाएं,बुजुर्ग परेशान हैं।गुंजी हेलीपैड में कई लोग रोज घंटों हेलीकाप्टर की उम्मीद में धारचूला जाने के लिए अपने परिवार के साथ भूखे प्यासे इंतजार कर निराश वापस घर लौटने को मजबूर हैं। अन्य हिमालयी गांवों में भी यही हाल है। सीमांत के लोगों में गांव से निकालने के लिए ठोस व्यवस्था नहीं होने से आक्रोश है।स्थानीय लोग रोज हेलीपैड में हेलीकाप्टर का इंतजार कर रहे हैं, अधिकतर लोगों को निराश होकर वापस लौटना पड़ता है। हेली की क्षमता बेहद कम हैं,अधिक चक्कर नहीं लग पाते। चिनूक व बड़े हेलीकाप्टर की सहायता से यहां के लोगों को निकाला जाए। उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड राज्य बने 22 साल हो गए हैं। लोगों को उम्मीद थी कि अलग राज्य अस्तित्व में आने के बाद पर्वतीय जनपदों में विकास की बयार बहेगी। इस संकल्प को लेकर राज्य आंदोलनकारियों ने अपना खून तक बहाया। उनकी कुर्बानी बेकार नहीं गई और नौ नवंबर 2000 को अलग राज्य उत्तरांचल वर्तमान में उत्तराखंड राज्य गठित हुआ।राज्य आंदोलनकारियों ने जिन सपनों को लेकर अलग राज्य की लड़ाई लड़ी थी, आज भी उनके सपने धरातल पर साकार नहीं हुए हैं। सीमांत जनपद इसकी बानगी है। उत्तराखंड में पिछले 22 सालों में 5 निर्वाचित सरकारें रही हैं. इस दौरान ऐसे कई मुद्दे राजनीतिक दलों के एजेंडे में रहे हैं, जिसने जनता को चुनावी दौर में रिझाने की कोशिश तो की. लेकिन आज तक इन पर गंभीर प्रयास नहीं हो पाए.इसकी वैसे तो अपनी अलग-अलग कई वजह हो सकती हैं. लेकिन प्रदेश निर्माण को लेकर सड़कों पर आंदोलन करने वाले राज्य जानकारी मानते हैं कि इसकी सबसे बड़ी वजह उत्तराखंड में सरकारों का रिमोट कंट्रोल केंद्र के हाथों में होना है. राज्य आंदोलनकारियों ने प्रदेश में 20 सालों से विभिन्न मुद्दों और वादों को लेकर अपनी बातें रखीं. सरकारों में कुछ अधूरापन दिखाई दिया हैं।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।