मिथक:जो सीएम रानीखेत आया कुर्सी खो दी,क्या इस बार टूटेगा या बरकरार रहेगा ये मिथक?

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रानीखेत:मिथक या कहें लोक विश्वास या मान्यता, राजनीति में हमेशा से रहे हैं।उत्तराखंड की राजनीति में भी कमोबेश सभी दल इन मिथकों पर भरोसा रखते हुए कुछ सीटें पर टिकट बंटवारे में सावधानी बरतते आए हैं तो किसी क्षेत्र में जाने से भी परहेज करते आए हैं।रानीखेत को लेकर जहां एक मिथक यह है कि यहां से जो विधायक जीतकर जाता है उसकी सरकार नहीं बनती तो वहीं यह भी कि जो सीएम रानीखेत में पैर रखता है वह जल्दी कुर्सी खो देता है।आज सीएम धामी रानीखेत आए तो यह चर्चा शाम तक माहौल में तारी रही।
राजनीति में भी मिथक का अपना महत्व है।पिछले लम्बे समय से राजनीतिक गलियारों में भी इनपर विश्वास किया जाने लगा है।उत्तराखंड बनने से पूर्व से ही गंगोत्री सीट को लेकर मिथक है कि यहां से जिस पार्टी से विधायक जीतता है उसी की सरकार बनती है ऐसा ही मिथक बदरीनाथ और रामनगर सीट को लेकर भी बताया जाता है।रानीखेत सीट पर भी 2002 से मिथक चला आया है कि जिस पार्टी का विधायक जीतता है उसकी सरकार नहीं बनतीहै।यहां से तबसे अजय भट्ट और करन माहरा बारी-बारी जीत कर विपक्ष में बैठते आए हैं। एक मिथक यह भी है कि राज्य में जो भी शिक्षा मंत्री बनता है वह अगला चुनाव नहीं जीतता।

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रानीखेत को लेकर ही एक मिथक और रहा है कि जो भी मुख्यमंत्री रानीखेत आता है वह शीघ्र गद्दी खो देता है।उप्र के मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह 80 के दशक में शिक्षक सम्मेलन में भाग लेने आए और गद्दी से हाथ धो बैठे।बाद मेंउप्र तत्कालीन सीएम एन डी तिवारी ने यहां गांधी चौक में सभा की और सत्ता च्युत हो गए , उत्तराखंड के पहले सीएम नित्यानंद स्वामी यहां गायत्री परिवार के कार्यक्रम में आए और कार्यकाल पूरा होने से पहले गद्दी छूट गई।सीएम बीसी खंडूरी एक बस दुर्घटना के घायलों को देखने थोड़ी देर के लिए रानीखेत आए और कुछ दिनों में कुर्सी चली गई। सीएम हरीश रावत यहां जल्दी -जल्दी तीन-चार कार्यक्रमों को छूकर गए और फिर सत्ता दूर हो गई ।पिछले साल त्रिवेंद्र सिंह रावत बजट सत्र में गैरसैण जाते वक्त रानीखेत में रुके और देहरादून पहुंच शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें सीएम पद से हटा दिया। अब आज पांच माह के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भाजपा प्रत्याशी प्रमोद नैनवाल के प्रचार में रानीखेत पहुंचे तभी से यह चर्चा गरम रही कि कहीं धामी के हाथ से सत्ता फिसल तो नहीं जाएगी? बहरहाल देखना होगा कि इस चुनाव में सालों से चले आ रहे मिथक कायम रहते है या फिर टूट जाते हैं।