कृषि कानूनों की वापसी:मोदी की हारी बाजी जीत में बदलने की कोशिश!
लेख-दिनेश तिवारी,एडवोकेट
पिछले शुक्रवार को गुरुपर्व के दिन तीन विवादित कृषि सुधार क़ानूनों को निरस्त करने की प्रधानमंत्री मोदी की घोषणा पर अब मोदी कैबिनेट की मोहर भी लग गयी है । भरोसा है कि २९ नवम्बर से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र में इन क़ानूनों को वापस लेने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी और सरकार को भरोसा है कि इन तीन विवादित क़ानूनों की वापसी से सरकार और किसानों के बीच पिछले चौदह महीनों से चला आ रहा टकराव ख़त्म हो जाएगा ।
सरकार को यह भी उम्मीद है कि उसके इस अप्रत्याशित क़दम से किसानों के मध्य उसकी बेहद धूमिल हो चुकी छवि को सुधारने में मदद मिलेगी और भाजपा हिंदी बेल्ट में अपना रसूख़ बरक़रार रखने में भी कामयाब हो सकेगी ।हालाँकि किसान संयुक्त मोर्चा का आंदोलन अभी जारी है और वह क़ानूनों की संसद में वापसी तक अपना संघर्ष ख़त्म करने के मूड में नहीं हैं । बहरहाल यह एक ऐतिहासिक आंदोलन की ऐतिहासिक जीत है और भारतीय लोकतंत्र की ख़ासियत भी कि जनमत के आगे झुकते हुए प्रधानमंत्री ने आख़िरकार विवादित कृषि सुधार क़ानूनों को निरस्त करने की घोषणा कर ही दी ।गुरुपर्व के दिन देश के नाम अपने संबोधन में जब प्रधानमंत्री मोदी ने सबको चौंकाते हुए अपने तीनों विवादित कृषि सुधार क़ानूनों को वापस लेने की घोषणा की तो सहसा किसी को भी यक़ीन नहीं आया । लोगों ने ख़ासकर किसानों ने कई बार प्रधानमंत्री मोदी के इस संबोधन को सुना और जब इंडिया टीवी , जीन्यूज़ , न्यूज १८ , आजतक , एवीपी न्यूज़ चेनल पर भी यह कन्फ़र्म हो गया कि प्रधानमंत्री ने तीनों विवादित कृषि क़ानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी है तब लोगों को यक़ीन आया कि वाक़ई कृषि क़ानूनों को निरस्त करने की घोषणा कर दी गयी है . अपने कृषि सुधार क़ानूनों से वापसी करते हुए प्रधानमंत्री मोदी अपनी परम्परागत छवि से अलग होते हुए दिखते हैं । उनका अभी तक का ट्रेक रिकार्ड अपनी घोषणाओं से पीछे नहीं हटने वाले नेता का है और उनकी पार्टी और उनके समर्थक उन्हें इसी लौह छवि के फ़्रेम में देखने के आदी हैं । तो क्या विवादित कृषि क़ानूनों से वापसी मोदी के राजनैतिक जीवन की सबसे बड़ी हार है या इसमें भी मोदी अपनी सफलता का कोई फ़ार्मूला देख रहे हैं ? ज़ाहिर है यह एक हारी हुई बाज़ी को जीत में बदलने की कोशिश है और तीन कृषि क़ानूनों के विरोध के इर्द गिर्द बुनी गयी विपक्ष की विरोध की सारी योजना को ध्वस्त करने की कोशिश भी है।
भारत में खेती और किसान राजनीति का हमेशा केंद्रीय मुद्दा रहे हैं और इस सेक्टर की सफलता या असफलता का भारतीय समाज पर गहरा असर पड़ता है।और किसानों की नाराज़गी भी भारतीय राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाती रही है। इसलिए तीन कृषि सुधार क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसानों का आंदोलन भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है। मोदी के सलाहकार शायद यह भूल गए कि नए कृषि क़ानूनों के विरोध का दायरा केवल किसानों तक सीमित नहीं है और वह इसे केवल किसानों की समस्या मानकर बड़ी भूल और बड़ी चूक भी कर गए । आज़ाद भारत के इतिहास का यह आंदोलन किसानों का सबसे बड़ा और लगातार एक साल से चला आ रहा आंदोलन है । अब जबकि इस आंदोलन का एक साल पूरा हो गया है इसके निहितार्थ को जानना और समझना भी बहुत ज़रूरी है ।
यह बात सही है कि वर्तमान कृषि आंदोलन की जड़ें पंजाब , हरियाणा , पश्चिमी उतरप्रदेश और उतराखंड की तराई में ज़्यादा फैली हुई हैं और यह भी सच है कि इन तीन विवादित क़ानूनों का सबसे अधिक नुक़सान भी इन राज्यों के किसानों के हिस्से ही आनेवाला था । तथ्य यह भी है कि देश की सबसे अधिक कृषि मंडियाँ पंजाब और हरियाणा में ही हैं और फिर पश्चिमी उत्तरप्रदेश और उतराखंड की तराई का नम्बर आता है । इसलिए यहाँ के किसान मंडियों और एमएसपी के महत्व और लाभ को जानते हैं यही कारण है कि इस किसान आंदोलन में असली भागीदारी भी इन्हीं राज्यों से है ।
देश २०२२ में अपने सात राज्यों के विधानसभा चुनावों को संपन्न कराने की तरफ़ जा रहा है इन सात में से छः राज्यों में भाजपा की सरकार है और देश का सबसे बड़ा और कृषि प्रधान राज्य उत्तरप्रदेश भी इन्हीं सात राज्यों में शामिल है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश हमेशा ही खेती और किसान राजनीति का प्रमुख केंद्र रहा है । अगर अतीत में देखें तो यहाँ सत्ता विरोधी रुझान स्थायी प्रवृति की तरह काम करता रहा है ।पर यह भी सही है कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश के इस मिथक को मोदी और योगी की राजनैतिक कैमिस्ट्री ने ही तोड़ा और २०१३ से यहाँ भाजपा का जलवा क़ायम है । लेकिन तीन कृषि क़ानूनों के ज़बरदस्त विरोध के कारण यह संभावना ही नहीं पूरा सच था कि खेतीकिसानी की यह विशाल बेल्ट भाजपा के हाथ से खिसक जाती और यूपी की सत्ता से भी योगी की छुट्टी हो जाती ज़ाहिर है भाजपा हरगिज़ नहीं चाहेगी की देश की राजनीति को दिशा देने वाला राज्य उसके हाथ से निकल जाए । इन राज्यों में भाजपा हरक़ीमत पर क़ाबिज़ होना चाहेगी इस लिए भी कि देश की सत्ता में क़ाबिज़ होने का मार्ग भी इन्हीं राज्यों से निकलता है।इन सात राज्यों में पंजाब अकेला ऐसा राज्य है जिसे जीतना भाजपा के लिए अभी भी एक दुहस्वप्न ही है पंजाब ने भाजपा को कभी स्वीकार नहीं किया यहाँ शिरोमणी अकालीदल के सहारे वह सत्ता का शिखर छूती रही है । इस समय भी विवादित तीन कृषि सुधार क़ानूनों को सबसे बड़ी चुनौती पंजाब की धरती से ही आयी है और एक साल से अनवरत चल रहे किसान आंदोलन की पटकथा भी पंजाब की समृद्ध धरती से ही लिखी और बुनी गयी है ।शायद मोदी पंजाब के इतिहास और मिज़ाज को समझने की भारी भूल और चूक कर गये लगते हैं । अगर पंजाब के किसान आंदोलन के इतिहास को देखें तो यह साफ़ है कि पंजाब के किसान २०वीं सदीकी शुरुआत में ही वामपंथ के प्रभाव में आ गए थे और यह भी की खेती के लाभकारी मूल्य की माँग का लोकप्रिय आंदोलन भी पंजाब की धरती में ही पला बढ़ा और समृद्ध हुआ है । इस लिहाज़ से पंजाब में भगत सिंह के आगमन से पहले और बाद में भी बामपंथ के सरोकार बहुत गहरे फैले हुए हैं ।किसानों के बामपंथ से इसी गहरे जुड़ाव ने किसान संयुक्त मोर्चा को एक साल तक इस आंदोलन को चलाने की ताक़त और समझ बख़्शी है । बहरहाल , किसान जहाँ देश का सबसे बड़ा मतदाता समूह हैं वहीं देश की राजनीति को प्रभावित करने वाला सबसे सशक्त समूह भी हैं । देश की १३० करोड़ आवादी का लगभग ६०प्रतिशत खेती से जुड़ा है और किसान है । किसानों का लगातार बढ़ता ग़ुस्सा भाजपा के लिए निरंतर मुसीबत का सबब बनता जा रहा था।और यह पूरी संभावना थी कि वह आने वाले चुनावों में अपने क़ब्ज़े वाले राज्यों में चुनाव हार जाय । शायद २ नवम्बर २०२१ को हिमांचल प्रदेश में उप चुनावों के नतीजों ने भी भाजपा को यह सबक़ दिया कि वह समय रहते विवादित तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द कर दे । हिमांचल के विधान सभा और लोकसभा उप चुनाव सत्तारुढ़ भाजपा के लिए केवल इसलिए चिंता का कारण नहीं हैं कि वहाँ जुबलीखोटाखाई विधानसभा क्षेत्र के हुए उप चुनाव में उसके प्रत्याशी की ज़मानत ज़ब्त हो गयी बल्कि इस लिए भी है कि यह विधानसभा क्षेत्र राज्य की राजधानी शिमला के नज़दीक है और सेव उत्पादन में अग्रणी भी है और तीन कृषि क़ानूनों के विरोध के आंदोलन में शामिल भी है ।ज़ाहिर है कि हिमांचल के सेव उत्पादकों के विरोध के गहरे मायने हैं और उनके निशाने पर जहाँ तीन कृषि क़ानून हैं वहीं कृषि बाज़ार पर अपना पूर्ण नियंत्रण की कोशिश में जुटीं कारपोरेट कंपनीज भी हैं ।अगर मोदी की राजनैतिक शैली को देखें तो वह हमेशा विवादों को जन्म देती रही है। मोदी सरकार द्वारा विवादित तीन कृषि क़ानूनों की ज़ोरदार पैरवी करते हुए देश को यह समझाया गया कि इससे दशकों पुराना राज्य द्वारा स्थापित और संचालित थोक बाज़ार ख़त्म होगा। और किसान अपनी उपज को कहीं भी , किसी भी क़ीमत पर किसी को भी बेच सकेंगे। अपने पहले के फ़ैसलों की तरह इन तीन कृषि क़ानूनों पर भी कोई चर्चा या अन्य सहयोगी दलों से मशविरा ज़रूरी नहीं समझा गया और न ही किसान और न ही किसान संगठनों से परामर्श ज़रूरी समझा गया।मोदी के इस मनमाने फ़ैसले का उनके गठवंधन में ही विरोध शुरू हो गया। इस फ़ैसले से असहमत होकर भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगियों में से एक शिरोमणि अकालीदल सरकार से अलग हो गयी । और कई अन्य सहयोगियों ने फ़ैसले की आलोचना करते हुए कहा कि देश को इन तीन क़ानूनों की कोई ज़रूरत नहीं है इसलिए इन्हें फ़ौरन वापस लिया जाना चाहिए पर मोदी पर इन आलोचनाओं , असहमतियों और गठबंधन के सहयोगियों के अलग होने का कोई असर नहीं हुआ और वह विवादित तीन क़ानूनों को लागू करने पर अड़े रहे।केंद्र सरकार ने यह नोटिस करना चाहिए था कि सुप्रीमकोर्ट के अस्थायी तौर पर क़ानूनों को निलंबित करने के बाद भी किसान अपने संघर्ष से पीछे नहीं हटे और भयंकर सर्दी , गर्मी , बरसात और करोना महामारी की दूसरी जानलेवा लहर का निर्भीकतापूर्वक सामना करते हुए मोर्चे पर डटे रहे हैं और अपने ७५० साथियों की शहादत के बाद भी अगर उनका होंसला डिगा नहीं है तो इसका मतलब साफ़ है कि आंदोलन की वैचारिक जड़ें काफ़ी गहरी हैं। इसके अलावा यह समझना भी ज़रूरी था कि जिस खेतीकिसानी के लिए इन तीन क़ानूनों को उपयोगी और बहुत महत्वपूर्ण प्रचारित किया जा रहा था जब वही किसान विरोध पर उतारु हैं तो फिर इन्हें लागू करने अथवा बनाये रखने का औचित्य क्या है ?पर यह भी सही है कि प्रधानमंत्री मोदी अपने इन्हीं विवादित फ़ैसलों के लिए भी जाने जाते हैं।हम इस सच की अनदेखी नहीं कर सकते कि मोदी पिछले सात साल से भारतीय राजनीति के शिखरपुरुष बने हुए हैं । उनकी पार्टी को संसद में अपार बहुमत हासिल है।शायद इसी कारण वह२०१६ में बिना किसी तैयारी और चेतावनी के देश की ८६ प्रतिशत करेंसी को चलन से बाहर कर देते हैं और करोना महामारी के दौर में बिना किसी पूर्व सूचना के लोकडावन लगाने का फ़रमान जारी कर देते हैं ।
किसान आंदोलन के भारी दबाव में तीनों कृषि सुधार क़ानूनों को वापस लेने के फ़ैसले के कई सबक़ हैं । पहला तो यही कि यह समझना और फिर मानना होगा कि भारत राज्यों का संघ है।और इस संघ के २८में से १२ राज्यों में ही भाजपा की सरकारें हैं। इसलिए इन शेष बहुसंख्यक राज्यों की राय की उपेक्षा लोकतंत्र के लिए ठीक न तो कही जा सकती है और न ही मानी जा सकती है। इसका एक मतलब यह भी है कि पूरा देश पूरी तरह मोदी के हर फ़ैसले का अनुशरण और अनुमोदन नहीं करता। दूसरे यह कि आंतरिक और बाहरी बहस के महत्व की लगातार अनदेखी भारत में मुमकिन ही नहीं असंभव भी है. तीसरे यह कि असहमति को भी उतना ही सुना और माना जाना चाहिए जितना कि सहमति को। यही लोकतंत्र के प्राण भी हैं और प्रण भी। १९७३ में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरगांधी ने भी अनाज व्यापार का राष्ट्रीयकरन कर यह ऐतिहासिक भूल की थी ।
(दिनेश तिवारी पूर्व उपाध्यक्ष उत्तराखंड विधि आयोग)