शिकार करने वाले बाघ-बाघिन को खोजने में अब तक लाख खर्च पानी की तरह बहा हैं?
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में 20 साल में बाघों ने किया 40 इंसानों का शिकार, बाइक वालों से है क्षेत्र में बाघ के आतंक के बाद क्षेत्र के लोगों में रोष है. पिछले तीन महीने में बाघ 10 लोगों का शिकार कर चुका है लेकिन वन विभाग की टीम अभी तक बाघ को पकड़ नहीं पाई है. एक आंकड़े के मुताबिक उत्तराखंड गठन के बाद से अभी तक 40 लोग बाघ का निवाला बन चुके हैं.हल्द्वानी से सटी फतेहपुर रेंज के जंगल में बाघ व बाघिन की तलाश में वक्त और पैसा दोनों खर्च हो रहा है। जनवरी से वन विभाग ने यहां ट्रैंकुलाइज अभियान शुरू कर रखा है। पिछले साढ़े नौ महीने में करीब 40 लाख रुपये खर्च हो चुके हैं। एक बाघ को ट्रैंकुलाइज भी किया जा चुका है।मगर तलाश अब भी जारी है। क्योंकि, रेंज के चिन्हित क्षेत्र में बाघ और बाघिन का मूवमेंट अब भी नहीं थमा। ऐसे में विभाग को आशंका है कि अभियान रूकने पर लोग फिर जंगल में घुसने लगेंगे। यह लापरवाही पहले की सात घटनाओं की तरह इंसानी जान को खतरे में डाल सकती है।पिछले साल 29 दिसंबर को फतेहपुर रेंज के जंगल में इंसानी मौत की पहली घटना हुई थी। जिसके बाद लगातार हमले हुए हैं। जून तक सात लोगों की जान जा चुकी थी। हमले के तरीके और घटनास्थल के आसपास मिले साक्ष्यों से पता चला कि अधिकांश घटनाओं को बाघ ने अंजाम दिया है। जनवरी से ही वन विभाग बाघ व बाघिन को पकडऩे में जुटा था। सातों घटनाएं जंगल के अंदर हुई थी।पिछले साल 29 दिसंबर को फतेहपुर रेंज के जंगल में इंसानी मौत की पहली घटना हुई थी। जिसके बाद लगातार हमले हुए हैं। जून तक सात लोगों की जान जा चुकी थी। हमले के तरीके और घटनास्थल के आसपास मिले साक्ष्यों से पता चला कि अधिकांश घटनाओं को बाघ ने अंजाम दिया है। जनवरी से ही वन विभाग बाघ व बाघिन को पकडऩे में जुटा था। सातों घटनाएं जंगल के अंदर हुई थी।ऐसे में बाघ को नरभक्षी घोषित कर मारा नहीं जा सकता था। इसलिए ट्रैंकुलाइज अभियान शुरू किया गया। इसके अलावा कई डिवीजनों के वनकर्मी बुला आबादी सीमा पर तैनात किया गया। ताकि घास व लकड़ी के चक्कर में कोई भी जंगल में न जा सके। विभाग के अनुसार समय के हिसाब से यह उत्तराखंड का सबसे बड़ा अभियान है। जबकि पैसे खर्च होने के लिहाज से दूसरा।इससे पूर्व 2016 में रामनगर में एक बाघिन को नरभक्षी घोषित कर ढेर किया गया था। देश भर से शिकारी-विशेषज्ञ बुलाने के साथ हेलीकाप्टर तक की मदद ली गई। 44 दिनों तक चले उस अभियान में 80 लाख रुपये खर्च हुए थे। वहीं, फतेहपुर मामले में वन विभाग इस कोशिश में जुटा है कि चिन्हित क्षेत्र में घूम रहे अन्य बाघ व बाघिन को भी ट्रैंकुलाइज कर जंगल से बाहर किया जाए।वन विभाग के अधिकारी मानते थे कि जंगल में एक बाघ का अधिकार क्षेत्र 20-25 वर्ग किमी होता है। इस क्षेत्र को बाघ का दायरा कहते हैं। लेकिन फतेहपुर रेंज में ट्रेप कैमरों ने दायरे के इस कहानी को बदल दिया। यहां दस किमी के दायरे में चार बाघों का मूवमेंट लगातार बना हुआ है। यानी इस संभावना को और बल मिला कि आसान भोजन के तलाश में बाघ दायरे से बाहर घूमने लगे हैं।जंगल में गश्त को लेकर 13 मार्च से कार्बेट से यहां दो हाथी आए हुए हैं। हाथियों के अलावा इनके महावत का खर्चा उठाना पड़ रहा है। बाघ की निगरानी को जंगल में मचान बने। सात पिंजरों में हर तीसरे दिन मांस बदलना पड़ता है। अलग-अलग रेंजों से हुए वनकर्मियों की डाइट के अलावा गश्ती टीम में शामिल वाहनों का डीजल खर्चा। जंगल किनारे गश्ती टीम के लिए टेंट और ट्रेप कैमरों के सेल समेत अन्य चीजों पर यह बजट खर्च किया गया।वनकर्मियों की तैनाती से लोग जंगल नहीं जा रहे। जिस वजह से जून के बाद से कोई घटना नहीं हुई। चिन्हित क्षेत्र में बाघ व बाघिन का मूवमेंट अब भी नजर आता है। इसलिए पूरी गंभीरता बरती जा रही है।यह हकीकत है कि कटते जंगलों और कचरे से भरते महासागरों से प्रकृति के कई हिस्से मिट रहे हैं। जल से लेकर जमीन तक वन्यजीवों के आवास हर जगह खतरे में हैं।वन्यजीव हमारे पारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण कारक हैं, उनके अस्तित्व के बिना पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखना संभव नहीं है। लिहाजा हमें वन्यजीवों के संरक्षण के लिए एक सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। वन्यजीवों के निवास स्थान की हानि को कम करने के साथ-साथ संसाधनों के अत्यधिक दोहन को रोकने की आवश्यकता है। इसके अलावा वन्यजीवों के अवैध शिकार पर भी अंकुश लगाने की दरकार है। क्षेत्र के ग्रामीण बाघ के आतंक से लगातार परेशान होकर वन विभाग से अपनी सुरक्षा के लिए गुहार लगाते हुए आ रहे हैं। लेकिन वन विभाग बाघ को पकड़ने में अभी तक नाकामयाब रहा है।गुलदार के मारे जाने से पर्वतीय जनजीवन और वन्य जीवन के संघर्ष का समाधान नहीं हो जाता बल्कि इस पूरी घटना से हमलावर हो रहे गुलदार पर्यावरण और पर्वतीय समाज के सह-अस्तित्व पर दोबारा से वैज्ञानिक चिंतन किए जाने की आवश्यकता उत्पन्न हो गई है. पर्यावरण के प्रति जागरूकता और उत्तराखंड में लगातार वन क्षेत्र के विस्तार के कारण पर्वतीय क्षेत्र में गुलदार की संख्या में भौगोलिक क्षेत्र के अनुपात में अधिक वृद्धि हो गई है. जिस कारण गुलदार और मानव जीवन का संघर्ष तेज हो गया है. चूंकि गुलदार आबादी क्षेत्र से प्रेम करने वाला जानवर है. जिस कारण गांव और कस्बों के आसपास रहने में ही यह रुचि दिखाता है. लेकिन आमतौर पर गुलदार मैनईटर नहीं होता है, कोई गुलदार तभी मैनईटर होता है, जबकि वह बीमार हो, कोई दांत टूट जाए अथवा वह खुद शिकार करने में सक्षम न रह जाय तब आदमियों पर हमले की घटनाएं बड जाती हैंउत्तराखंड की पर्वतीय क्षेत्र का यह दुर्भाग्य जनक पहलू है कि वर्तमान में जंगल के साथ ही जो लगे हुए खेत हैं वह भी बंजर होकर जंगल ही हो गए हैं. वहां उग आई झाड़ियां, घास गुलदार को छुपने का मौका देते हैं. खेतों तक गुलदार की यह उपस्थिति सुअर और बंदरों के बाद पर्वतीय कृषि के संकट और अंततः पलायन को बडाने में प्रमुख कारण है. गुलदार के आतंक का सही आकलन न कर पाना, हमारे वन महकमे की एक बड़ी नाकामी है. तराई क्षेत्र अथवा देश के अन्य टाइगर रिजर्व में इन जानवरों की गणना के लिए रेडियो कॉलर टैपिंग और कैमरा ट्रैप की सहायता लेकर उनकी जनसंख्या का सही-सही अनुमान लगाया गया है. जबकि पर्वतीय क्षेत्र में गुलदार की जनसंख्या का आकलन करने की कोई भी तकनीक अथवा रणनीति अभी तक विकसित नहीं की गई है और न ही नरभक्षी हो रहे कुल गुलदारों की पहचान और जीवित बचाव का कोई वैज्ञानिक तरीका विकसित किया गया है. यह लापरवाही पहले की सात घटनाओं की तरह इंसानी जान को खतरे में डाल सकती है। लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।