गढ़वाली नाटक ‘पुरोधा पुरिया नैथाणी’ का सफल मंचन
सी एम पपनैं
नई दिल्ली। उत्तराखंड पर्वतीय अंचल के दिल्ली एनसीआर मे प्रवासरत प्रवासियों की संस्कृति की सूत्रधार संस्था ‘दि हाई हिलर्स ग्रुप’ द्वारा मंडी हाउस स्थित एलटीजी सभागार में 7 अगस्त की सायं सुशीला रावत रचित व निर्देशित ऐतिहासिक दस्तावेज आधारित गढ़वाली नाटक ‘पुरोधा पुरिया नैथाणी’ का सफल मंचन किया गया।
मध्य हिमालय गढ़वाल अंचल के (1648-1760) कालखंड आधारित ऐतिहासिक मंचित नाटक का कथासार बहुत ही सजग और रोचक रूप में घर आंगन बैठी बूढी दादी मां द्वारा विस्तार से कई भागो में पोती-पोते को सुनाई जाती है। गाथा घटना क्रमानुसार नाटक का मंचन किया गया।
मध्य कालीन गढ़वाल की राजनीति में असाधारण व्यक्तित्व व विलक्षण प्रतिभा के धनी पुरिया नैथाणी का जन्म 1648 नैथाणी’ गांव (पौडी जनपद) में हुआ था। गढ़ नरेश पृथ्वीपति शाह के निकटस्थ मंत्री व ज्योतिष डोभाल ने जब बालक पुरिया नैथाणी की कुंडली देखी थी, तभी अवगत करा दिया था कि बालक असाधारण है। पुत्रहीन होने से बालक के माता-पिता को समझा बुझाकर उक्त परिवार का घर खर्च उठा बालक की उच्च शिक्षा-दिक्षा, शास्त्रों, पुराण मंत्रों इत्यादि का ज्ञान प्राप्त करवा कर बालक को निपुण चतुर और कुशल कूटनीतिज्ञ तथा सेनापति बनाने में मंत्री डोभाल ने पूर्ण मदद की थी।
पुरिया नैथाणी की बुद्धि कौशल, अस्त्र-शस्त्र, घुडसवारी, राजनैतिक ग्रंथों का अध्ययन, मनन के बल बूते तथा 17 वर्ष की उम्र मेंपृथ्वी शाह के घोड़े को परिपक्व बनाने की एवज तथा घोड़े द्वारा महल की ऊचाई को लांघ कर पृथ्वी शाह के मान सम्मान में वृद्धि करने व गढ़ के लोगों व आमन्त्रित मेहमानों को रोमांचित करने के पुरुस्र स्वरूप पुरिया नैथाणी को अश्वशाला प्रधान का पद गढ़ नरेश से प्राप्त हुआ था। बीस वर्ष की उम्र मे पुरिया नैथाणी की कीर्ति सम्पूर्ण गढ़वाल में फैल गई थी। उसका राजनैतिक जीवन प्रारंभ हो गया था।
पुरिया नैथाणी कुशल सेनानायक के साथ-साथ एक राजनयिक भी बन गया था। वाकपटुता और दूरदर्शिता के लिय प्रसिद्ध हो गया था। ख्याति व ज्ञान के अनुरूप 1668 मे पुरिया नैथाणी को गढ़ नरेश द्वारा, गढ़ प्रतिनिधि के रूप में औरंगज़ेब के दिल्ली दरबार में एक विवाह समारोह मे भेजा गया था जहां दरबारियों के सम्मुख पुरिया नैथाणी अपनी प्रतिभा का सिक्का जमाने में सफल रहा था।
भूमि विवाद घटना जिसमें किसी बाहरी रसूखदार व्यक्ति द्वारा कोटद्वार में जमीन कब्जा कर ली गई थी, पुरिया नैथाणी द्वारा कूटनीतिक तौर पर औरंगजेब से संपर्क साध, उक्त जमीन छुड़वा पुन: उक्त जमीन का भू-भाग गढ़वाल को दिलवाने में मदद की थी। गढ़ नरेश ने खुश होकर सैकड़ों बीघा जमीन पुरिया नैथाणी को पुरुस्कार स्वरूप भैट की थी।
दिल्ली सल्तनत द्वारा 1660 में गढ़वाल के लोगों पर जजिया कर थोप दिया गया था। गढ़वाल नरेश फतेह शाह द्वारा कर से मुक्ति पाने के लिए, कूटनीतिज्ञ पुरिया नैथाणी को दिल्ली औरंगज़ेब के पास भेजा गया था। पुरिया नैथाणी द्वारा औरंगज़ेब के सम्मुख पहाड़ की जन समस्याओं व लोगों के अभाव ग्रस्त जीवन का जिक्र तथा पहाड़ की भौगोलिक परिस्थितियों व श्रम साध्य जीवन की बातों से अवगत करा अपनी प्रतिभा से जजिया कर समाप्त करवाने मे मदद के साथ-साथ दिल्ली और गढ़वाल अंचल की दोस्ती बढ़ाने में मदद की थी। गढ़वाल लौटने पर गढ़ नरेश द्वारा पुरिया नैथाणी को सेना नायक बना दिया गया था। सफल राजनयिक की भूमिका निभाने के साथ-साथ फतेह शाह के साथ सेनापति की भूमिका मे, गढ़वाल की सीमाओं की रक्षा करने में पुरिया नैथाणी सफल रहे थे।
1709 मे कुमाऊं शासक जगत चंद्र की सेना श्रीनगर में घुस गई थी। पुरिया नैथाणी की सूझबूझ व उचित सलाह पर फतेह शाह देहरादून चले गए थे। शंकर डोभाल के साथ पुरिया नैथाणी ने गढ़ रक्षा का जिम्मा संभाला था। श्रीनगर मे जगत चंद्र को अपनी वाकपुटता से प्रभावित कर श्रीनगर एक ब्राह्मण को दान मे दिलवा कर जगत चंद्र को वापस कुमांऊ लौटा फतेह शाह को वापस बुला लिया गया था। 1710 मे अपनी कूटनीति, वीरता व बुद्धि विवेक का परिचय देकर कुमाऊं के कुछ सीमावर्ती गांवों को भी नियंत्रण में ले लिया था।
उक्त उल्लेखनीय घटना के बाद एक लम्बे समय तक, गुमनामी का जीवन, नैथाण गांव मे ही पुरिया नैथाणी द्वारा बिताया गया था। राजकुमार प्रदीप शाह के वयस्क होने व गद्दी पर बैठाने तक प्रदीप शाह को अपने संरक्षण मे पुरिया नैथाणी ने शिक्षा दी थी। प्रदीप शाह द्वारा 1730 में सत्ता संभालने के बाद 1748 मे अवकाश ले चुके, पुरिया नैथाणी जब सौ वर्ष के थे उन्हें सेवा के लिए पुनः बुलाया गया था। कुमांऊ के शासक दीपचंद के विरुद्घ सहयोग का आग्रह किया गया था। गढ़ नरेश को पुरिया नैथाणी द्वारा, युद्ध न करने की सलाह दी गई थी। कहा न मानने के परिणाम स्वरूप, दीपचंद के विरुद्ध युद्ध हुआ था। सौ वर्ष की उम्र में, जूनियागढ़ के युद्ध मे, पुरिया नैथाणी ने भाग लिया था। युद्ध मे घायल भी हुए थे। प्रदीप शाह के खुद के लोगों ने गद्दारी की थी। पुरिया नैथाणी ने गढ़ हित मे, दीप चंद से संधि करवाई थी। गढ़वाल व कुमांऊ की मैत्री का सूत्रपात हुआ था। गढ़वाल व कुमांऊ के बीच दुबारा फिर कभी युद्ध व वाद-विवाद न करने की सहमति बनी थी। 1750 मे पुरिया नैथाणी अंतिम रूप से अपने पैत्रिक गांव नैथाण चले गए थे। बाद के वर्षो मे, देवभूमि के जंगलो मे अपना जीवन गुजारने लगे थे। अद्दाणी के जंगल मे उनकी मुलाकात भ्रतहरि व उनके शिष्य से होती है। कुछ पल साथ निभाने, साधुओं के आग्रह पर उन्हें भोजन करा, भोजन न बचने पर, साधुओं के जूठे बर्तन चाट कर, भूख मिटा कुछ पल के लिए आश्चर्य जनक रूप से दिव्य दृष्टि, पुरिया नैथाणी को प्राप्त होती है व साधुओं को यह ज्ञात होने पर, दिव्य दृष्टि का लोप भी हो जाता है। साधुओं के प्रस्थान करने से पूर्व उनके द्वारा व्यक्त भावनाओं के अनुरूप, पुरिया नैथाणी भाव व्यक्त करता है, नाटक समाप्त होता है।
मंचित नाटक के संवाद मुख्य रूप से गढ़वाली मे तथा जरूरत के मुताबिक कुमांऊनी व हिंदी मे
सटीक व स्वभाविक तौर पर पिरोये गए थे। पात्रों द्वारा अंचल की बोलियों मे व्यक्त संवाद, त्रुटि रहित थे। राजदरबार व युद्ध के दृश्य, प्रभावशाली थे। रूप सज्जा व वस्त्र सज्जा पात्रों के अनुकूल थी। नाटक के प्रस्तुतिकरण व प्रकाश व्यवस्था मे आंशिक खामियां दृष्टिगत थी।
मंचित नाटक किरदारों में, दिवाकर सिंह, रवि रंजन, जगमोहन सिंह रावत, कुसुम बिष्ट, अंजू भंडारी, सविता पंत, पी एस चौहान इत्यादि की भूमिका सराहनीय रही। पुरिया नैथाणी के मुख्य किरदार में, कुलदीप असवाल, दादी की भूमिका मे कुसुम चौहान, महामंत्री भूपाल सिंह बिष्ट, भ्रतहरि खुशाल सिंह बिष्ट, मंत्री व साधु अखिलेश भट्ट, जगत चंद्र महेंद्र लटवाल, दिल्ली प्रवासी रंगमंच के मजे हुए रंगकर्मियों मे, एक बार पुन: अपना नाम दर्ज कराने मे सफल रहे।
मंचित नाटक में, पुरिया नैथाणी की कूटनीतिज्ञता, कुशल राजनीतिक समझ, एक निपुण सेनापति के साथ-साथ, जन व अंचल के सरोकारों के हित में, दूरदर्शिता पूर्ण समझ भी दृष्टिगत होती नजर आती है। आज के समाज विघटनकारियों की करतूतो को, दूरदर्शिता पूर्ण समझ रख, अनर्थ से बचने के लिए, जानना-समझना जरूरी है। पुरिया नैथाणी की यही दूरदर्शिता थी, निष्ठा व एकजुटता के बल ही, बाहरी दुश्मनो को परास्त किया जा सकता है। अंचल व समाज को सम्रद्धि की राह पर अग्रसरित किया जा सकता है।
सर्वविदित है, सदियों से संचित सांस्कृतिक विरासत, रंगकर्म से जुड़े संगठनो को रचनात्मकता से जोडती है। साथ ही संवेदनाओ के साथ, चीजो को समझने की चेतना भी देती है। बदलते सामाजिक परिवेश और लोक विधाओ के सामने जो चुनौती है, उन्हे समझते हुए, इनके संरक्षण, संवर्धन और मौजूदा समय में इस सबकी प्रासंगिकता पर, मंचित ऐतिहासिक नाटक, ‘पुरोधा पुरिया नैथाणी’ लेखिका व निर्देशिका सुशीला रावत व आयोजक संस्था ‘द हाई हिलर्स’ को बल देता नजर आता है। लेखिका की सोच व समझ, पुरिया नैथाणी के किरदार को जीवंत कर, उसके कृतित्व व व्यक्तित्व को नाटक के रूप मे प्रकाश में लाना, उत्तराखंडी समाज को गौरवान्वित करता नजर आता है। उत्तराखण्ड के निष्ठावान चिंतको व हितैषियों को यह नया ऐतिहासिक नाटक, एक नया आयाम देता नजर आता है।
संक्षिप्ततया सुशीला रावत द्वारा रचित व निर्देशित नाटक, दर्शकों द्वारा सराहा गया है। मंचित नाटक सफल रहा है। उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए, नायाब पहल ‘दि हाई हिलर्स ग्रुप’ द्वारा विगत कई दशकों से की जाती रही है। ‘पुरोधा पुरिया नैथाणी’ नाटक का मंचन कर, रंगकर्म से जुडी इस संस्था ने सफलता का एक और मुकाम हासिल करने में सफलता प्राप्त की है, जो उत्तराखण्ड अंचल के संस्कृति कर्मियों व अन्य संगठनों के लिए एक प्रेरणा जनक संदेश है।
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