आजादी का अमृत महोत्सव:कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे, जिनसे घबराते थे अंग्रेज

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
पंडित बद्रीदत्त पांडे मूलरूप से अल्मोड़ा के रहने वाले थे। वह अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी भी रहे। उनका जन्म 15 फरवरी 1882 को कनखल, हरिद्वार में हुआ। माता-पिता का निधन होने के बाद वह अपने घर आ गए और पढ़ाई की। उन्होंने 1903 में नैनीताल के एक स्कूल में शिक्षण कार्य किया। वह कुछ दिनों बाद देहरादून चले गए और सरकारी नौकरी करने लगे। लेकिन उन्होंने जल्द नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पत्रकारिता के क्षेत्र में आ गए। उन्होंने 1903 से 1910 तक देहरादून में लीडर नामक अखबार में काम किया। 1913 में उन्होंने अल्मोड़ा अखबार की स्थापना की। उन्होंने इस अखबार के जरिये स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने का काम किया। इसी कारण कई बार अंग्रेज अफसर इस अखबार के प्रकाशन पर रोक लगा देते थे। अल्मोड़ा अखबार को ही उन्होंने शक्ति अखबार का रूप दिया। शक्ति साप्ताहिक अखबार आज भी लगातार प्रकाशित हो रहा है।  आज के समय में लोग रातों रात धनबल, परिवारवाद और अन्य रास्तों से राजनीतिक दलों में प्रवेश कर देश की संसद में विराजमान हो जाते हैं। दूसरी तरफ आजादी के बाद के शुरुआती दौर को देखें तो कई महान हस्तियां और देश को आजादी दिलाने के लिए वर्षों जेल में रहे देशभक्त सांसद चुने जाते थे। आजादी के आंदोलन में पांच बार जेल गए प्रख्यात स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बद्री दत्त पांडे भी उन्हीं में से थे। कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे 1957 के उप चुनाव में अल्मोड़ा के सांसद चुने गए। वह स्वतंत्रता सेनानी होने के साथ जाने माने पत्रकार भी थे और उन्होंने जेल में रहते कुमाऊं का इतिहास पुस्तक की भी रचना की। उनकी लिखी यह पुस्तक आज भी काफी पढ़ी जाती है।कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे के पिता स्व. विनायक पांडे हरिद्वार में प्रसिद्ध वैद्य थे। बद्री दत्त पांडे मूल रूप से अल्मोड़ा के रहने वाले थे। इसलिए माता पिता के निधन के बाद वह अल्मोड़ा आ गए। अल्मोड़ा में ही उन्होंने पढ़ाई की। 1903 में उन्होंने नैनीताल में एक स्कूल में शिक्षण कार्य किया। कुछ समय बाद देहरादून में उनकी सरकारी नौकरी लग गई, लेकिन जल्दी ही उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पत्रकारिता में आ गए।उन्होंने 1903 से 1910 तक देहरादून में लीडर नामक अखबार में काम किया। 1913 में उन्होंने अल्मोड़ा अखबार की स्थापना की। उन्होंने इस अखबार के जरिए स्वतंत्रता आंदोलन को गति देने का काम किया। इसी कारण कई बार अंग्रेज अफसर इस अखबार के प्रकाशन पर रोक लगा देते थे। अल्मोड़ा अखबार को ही उन्होंने शक्ति अखबार का रूप दिया। शक्ति साप्ताहिक अखबार आज भी लगातार प्रकाशित हो रहा है। 1921 में कुली बेगार आंदोलन में बीडी पांडे की भूमिका को हमेशा याद किया जाता है। उन्हें कुमाऊं केसरी की उपाधि से भी नवाजा गया। स्व. पांडे 1921 में एक साल, 1930 में 18 माह, 1932 में एक साल, 1941 में तीन माह जेल में रहे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्हें जेल भेजा गया। आजादी के बाद भी अल्मोड़ा में रहकर वह सामाजिक कार्यों में सक्रियता से हिस्सा लेते रहे। 1957 में दूसरी लोकसभा के लिए हुए चुनाव में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हरगोविंद पंत चुने गए, लेकिन कुछ ही माह में उनका निधन हो गया। इसके बाद सितंबर 1957 में हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने बीडी पांडे को प्रत्याशी बनाया और वह विजयी हुए। स्व. पांडे बहुत बेबाक माने जाते थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को मिलने वाली पेंशन आदि का लाभ भी नहीं लिया। 1962 के चीन युद्ध के समय अपने सारे मेडल, पुरस्कार आदि सरकार को भेंट कर दिए।  हिमालयी क्षेत्र में आजादी के लिए जो संघर्ष हुआ उसका अपना महत्व हुआ। यहां के जनआंदोलनों ने अंग्रेज सरकार को अहसास कराया कि हिमालयी क्षेत्र से लेकर दक्षिण हिंद महासागर तक आंजादी के संघर्ष में हर व्यक्ति अलख जगा चुका है। उत्तराखंड में घर घर से लोग आजादी के आंदोलन में अपनी भागेदारी दी। जेलों में रहे यातनाएं सही।  देवभूमि में कई प्रतीक स्थल हैं जो आज आजादी के उस संघर्ष की याद दिलाते हैं। भारतीय आजादी के संघर्ष  का पूरा इतिहास भारतीय गौरव से जुडा हुआ है। आजादी के लिए जीवन का बलिदान करने वालों,   त्याग – संघर्ष करने वालों, क्रूर यातना सहने वालों को शत शत नमन.

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