पहाड़ों में भूस्खलन के बढ़ते मामले राज्य के लिए बड़ी चिंता का सबब हैं
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड जिसे हम देवभूमि कहते हैं। जहां के पहाड़ हमारे जीवन की आधार नदियों के उद्गम स्थल हैं। उस उत्तराखंड में त्रासदियों का इतिहास आज का नहीं है बल्कि करीब सवा दो सौ साल के उपलब्ध इतिहास के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पहाड़ के लोग प्राकृतिक आपदाएं झेलने को अभिशप्त रहे हैं। एक आपदा आती है उसके बाद मदद के लिए सभी सोर्सेज को सक्रिय कर दिया जाता है। राज्य उससे पूरी तरह उबर भी नहीं पाता कि दूसरी आपदा की दस्तक हो जाती है। केंद्र सरकार सरकार पीडि़तों को मदद के लिए और पुनर्निर्माण के लिए बजट देती है। लेकिन राज्य के सारे संसाधन उस आपदा को झेलने के लिए पर्याप्त नहीं होते हैं। कहते हैं पहाड़ पर तीन ही बाबू होते हैं एक बाढ़ का, दूसरा सूखे का और तीसरा बाबू भूस्खलन के बाद जमींदोज हो चुके खेत, मकानों को दोबारा बसाने के लिए। इनका काम अनवर चलता रहता है।पहाड़ों में भूस्खलन के बढ़ते मामले राज्य के लिए बड़ी चिंता का सबब हैं. हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार पूरे प्रदेश में करीब 6300 ऐसे भूस्खलन जोन पाए गए, जो पहाड़ों पर यात्रियों के लिए कभी भी खतरा बन सकते हैं. भू-वैज्ञानिकों की एक दूसरी रिपोर्ट ने कुछ और चौंकाने वाले तथ्य सामने रखे हैं, केवल अलकनंदा घाटी में ही इतनी बड़ी संख्या में लैंडस्लाइड जोन का मिलना अपने आप में चौंकाने वाला है. रिपोर्ट में माना गया कि 2013 की आपदा के दौरान करीब 440% अधिक बारिश होने से इस क्षेत्र में लैंडस्लाइड जोन विकसित हुए हैं. यही नहीं विभिन्न सड़क मार्गों के बनने से भी भूस्खलन जोन की संख्या बढ़ी है. रिपोर्ट में माना गया कि कुल लैंडस्लाइड जोन की संख्या में से 42% चिन्हित भूस्खलन जो सड़क से 50 मीटर क्षेत्र के बीच बने हैं. आपदा प्रबंधन विभाग में निदेशक के नेतृत्व में भू वैज्ञानिकों की टीम ने पाया कि अलकनंदा घाटी के ऊपरी क्षेत्र में कई जगह ऐसी भी थीं जहां कभी भी भूस्खलन जोन नहीं बने थे. लेकिन सड़क निर्माण के बाद इन क्षेत्रों में बार-बार अब भूस्खलन हो रहा है. इतना ही नहीं वैज्ञानिकों ने माना है कि पहाड़ी क्षेत्र में सड़क निर्माण पर्यावरणीय रूप से अध्ययन के बाद ही होना चाहिए. ऐसा नहीं होने पर अलकनंदा घाटी भूस्खलन के लिहाज से और भी ज्यादा संवेदनशील हो सकती है. अलकनंदा नदी के ऊपरी क्षेत्रों में करीब 510 लैंडस्लाइड जोन रिकॉर्ड किए गए हैं. इसमें 220 चमोली क्षेत्र में पाए गए हैं. रुद्रप्रयाग जिले में इनकी संख्या 290 है. यह वह क्षेत्र हैं जो चारधाम के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है. यहां पर श्रद्धालुओं और पर्यटकों की बड़ी संख्या गुजरती है. शायद यही कारण है कि ऑल वेदर रोड का एक बड़ा हिस्सा इस क्षेत्र में बनाया जा रहा है. इस क्षेत्र में ऑल वेदर रोड भी भूस्खलन का एक प्रमुख कारण है. जिसके कारण यह मार्ग अक्सर बाधित रहता है. इस अलकनंदा घाटी से केदारनाथ, त्रिजुगीनारायण समेत रुद्रप्रयाग के कई तीर्थ और पर्यटन स्थलों की ओर जाया जाता है. चमोली की बात करें तो इसमें बदरीनाथ से लेकर जोशीमठ, पीपलकोटी और औली जैसे स्थलों के बीच भी कई भूस्खलन जोन हैं. गंगा नदी में सबसे ज्यादा पानी अलकनंदा नदी का ही है. केदारनाथ में आई आपदा के बाद सरकार ने इस तरह का एक सर्वे कराने का निर्णय लिया था, जिसकी रिपोर्ट अब सार्वजनिक की गई है. भूवैज्ञानिक मानते हैं कि उत्तराखंड में खासतौर पर गढ़वाल क्षेत्र में ऐसे कई क्षेत्र हैं जो भूस्खलन की जद में हैं. अलकनंदा में तेज ढलान क्षेत्र हैं. जिस तरह के हालात हैं उससे इस अलकनंदा वैली के बीच में आने वाले कई ऐतिहासिक कस्बे खतरे की जद में हैं. भूवैज्ञानिक कहते हैं कि देवप्रयाग शहर भी भूस्खलन के जोन में है. इसके अलावा श्रीनगर से रुद्रप्रयाग के बीच ऐसे कई बड़े भूस्खलन जोन बन गए हैं जो बड़े खतरे को दावत दे रहे हैं.ऋषिकेश से नीति और ऋषिकेश से बदरीनाथ के बीच भूस्खलन का एक बड़ा पैच बन चुका है. इतना ही नहीं मंदाकिनी वैली में भी बड़ा खतरा मान रहे हैं. यहां उनका दावा है कि कुल क्षेत्र का 40% क्षेत्र लैंडस्लाइड जोन में आ चुका है. उनका कहना है कि इस स्थिति में प्रदेश के पहाड़ी जिलों के क्षेत्र में केदारनाथ जैसी आपदा को दोहराने की तरफ दिखाई दे रहे हैं. पहाड़ी क्षेत्रों में बाढ़, सूखा और भूकंप के कारण बड़ी जनहानि होती है. जिसके कारण बड़ी मात्रा में जानमाल का नुकसान होता है. भूकंप के कारण घरों में दरारें पड़ जाती हैं, जिससे आवासीय भवनों पर खतरा मंडराता रहता है. भूस्खलन के कारण भी यहां की कई पहाड़ियां मौत बनकर लोगों की जान लील लेती है. जिसके कारण गांव के गांव प्रभावित होते हैं. बारिश अतिवृष्टि से तो पहाड़ों में सबसे ज्यादा हानि होती है. ये पहाड़ों में सबसे ज्यादा विस्थापन की वजह है. हर साल बादल फटने और भूस्खलन की घटनाओं से कई गांवों के नामोनिशान तक मिट गये हैं. हाल के दिनों में पिथौरागढ़, उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग, टिहरी जैसे जिलों में बारिश और भूस्खलन ने तांडव मचाया. जिसके कारण इन इलाकों के कई गांव अब विस्थापन की बाट जो रहे हैं. दैवीय आपदा के लिहाज से संवेदनशील माने जाने वाले उत्तराखंड के इन क्षेत्रों में विस्थापन की मांग उठती आयी है. सिस्टम के जिम्मेदार आला अधिकारी भले ही इन तमाम ग्रामीणों को विस्थापित किए जाने की कार्य योजना को धरातल पर उतारने दावे करते हो, लेकिन विस्थापन के आंकड़े कुछ और ही बयां कर रहे हैं. यही वजह है कि पुनर्वास किए जाने वाले ग्रामीण, खौफ के साए में जीने को मजबूर हो रहे हैं. पहाड़ी क्षेत्रों के ग्रामीणों की जिंदगी से जुड़े इस गंभीर मामले पर अब विपक्ष ने भी सरकार की नीयत पर ही सवाल खड़े करने शुरू कर दिए हैं. प्रदेश के 13 जिलों में से 12 जिले ऐसे हैं, जिन जनपदों के कई गांव खतरे की जद में हैं. आपदा विभाग के आंकड़ों की मानें तो पिथौरागढ़ जिले में सबसे ज्यादा 129 गांव खतरे की जद में हैं. बावजूद इसके इस जिले के सिर्फ 235 परिवारों को ही विस्थापित किया गया है. साथ ही अगर आकड़ों पर गौर करें तो सबसे ज्यादा पहाड़ी क्षेत्रों में बसे गांव हैं, जो खतरे की जद में हैं. वहीं, मैदानी क्षेत्रों में बहुत कम ही गांव ऐसे हैं, जो खतरे की जद में हैं. विस्थापन को लेकर सरकार ने जो नीति बनायी है वह मानवीय और व्यावहारिक नहीं है. यही नहीं, विस्थापन की नीति पर पद्म भूषण चंडी प्रसाद भट्ट ने भी एतराज जताया था. उनका कहना था कि पुनर्वास की नीति हरियाणा की तर्ज पर बनाई जानी चाहिए. पुनर्वास दो तरह का होता है, पहला रिलोकेशन और दूसरा रिहैबिलिटेशन. प्रदेश में मौजूदा समय में करीब 400 गांव ऐसे हैं जिन्हें रीलोकेट किया जाना है. उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थितियां अन्य राज्यों से भिन्न हैं. यही वजह है कि उत्तराखंड सीमित संसाधनों में सिमटा हुआ है. प्रदेश की विषम भौगोलिक परिस्थितियां न सिर्फ राज्य की आर्थिकी पर असर डाल रही हैं बल्कि प्रदेश के तमाम ऐसे गांव भी हैं जहां इसके कारण खतरा बना रहता है. प्राकृतिक आपदाओं के चलते राज्य के इन गावों का दूसरे इलाकों से संपर्क कट जाता है. उत्तराखंड में भूस्खलन संभावित क्षेत्रों की पहचान और ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए भूस्खलन न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केंद्र की स्थापना होगी। यह केंद्र भूस्खलन की भविष्यवाणी का तंत्र विकसित करने के साथ ही भूस्खलन संभावित क्षेत्रों के ट्रीटमेंट का काम करेगा मुख्य सचिव बताया कि राज्य में लम्बे समय से आपदा और भूस्खलन की घटनाएं घट रही हैं और हर साल इस वजह से बड़ी संख्या में लोगों की जान जा रही है। इसके मद्देनजर कैबिनेट ने इस सेंटर को मंजूरी देने का निर्णय लिया है। भूस्खलन संभावित क्षेत्रों की पहचान करने के लिए व्यापक सर्वे करना और उसका विस्तृत मानचित्र तैयार करना है। इसके आधार पर राज्य में आपदा से निपटने की पूर्व चेतावनी प्रणाली तैयार की जानी है। इसके साथ ही जागरुकता, पर्वतीय क्षेत्रों में विकास कार्य से पहले विव्तृत अध्ययन आदि का काम करेगा। इस केंद्र के विशेषज्ञ राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में जमीनों की ढ़लान आदि का भी अध्ययन कर रिपोर्ट देंगे।भूस्खलन का डेटाबैंक बनेगा, जोन तय होंगेइस केंद्र का जिम्मा राज्य में अभी तक हुए भूस्खलन की घटनाओं का डेटा बैंक तैयार करना भी होगा। इन घटनाओं का अध्ययन करने के बाद अन्य क्षेत्रों की पहचान करने का कार्य किया जाएगा। इसके आधार पर राज्य में भूस्खलन संभावित क्षेत्रों का चार्ज तैयार होगा और उसी के आधार पर निर्माण कार्य व परियोजनाओं को लेकर भी निर्णय लिए जाएंगे।इसके आधार पर राज्य में भूस्खलन जोन भी चिह्नित किए जाएंगे। इसके साथ ही यह केंद्र भूस्खलन को पैदा करने वाले कारकों की पड़ताल पर उनकी पहचान भी करेगा। भूस्खलन और भूकंप के आंतरिक संबंधों का भी इस सेंटर की ओर से अध्ययन किया जाएगा। डाटा बैंक भी तैयार होगा।?लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।