पेपर लीक होते रहे आयोग सोता रहा?
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड राज्य की राजनीतिक संस्कृति भी अलग होगी, लेकिन यह हुआ नहीं। आज भी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश की ही राजनीतिक विरासत ढो रहा है। बस बाहुबल की राजनीतिक संस्कृति से काफी हद तक निजात मिली है, उत्तराखंड की स्पेशल टास्क फोर्स ने राज्य के अधीनस्थ कर्मचारी चयन आयोग में पेपर लीक के मामले में 23वीं गिरफ्तारी को अंजाम दिया तो अब कहा जा रहा है कि एसटीएफ के रडार में पंतनगर यूनिवर्सिटी से जुड़े कुछ अन्य कर्मचारी भी हैं. एसटीएफ ने सचिवालय में हुई सुरक्षा गार्ड्स की नियुक्ति में भी धांधली पकड़ी है. इधर, विधानसभा में हुई भर्तियों में भी गड़बड़ी के आरोप लगा दिए हैं तो बड़े सवाल खड़े हो गए हैं कि 22 साल के उत्तराखंड में आज तक जितनी सरकारी भर्तियां हुई हैं, क्या वो कभी भी साफ-सुथरी हुईं?पेपर लीक मामले में इस बार एसटीएफ के हाथ पंतनगर यूनिवर्सिटी से जुड़े एक रिटायर्ड अधिकारी यूनिवर्सिटी के देहरादून कैंप ऑफिस में तैनात रहे हैं. सूत्रों के अनुसार 2006 से 2016 यानी दस सालों तक यूनिवर्सिटी की टेस्ट एंड सिलेक्शन कमेटी के मेंबर के तौर पर अपने पद का दुरुपयोग किया और कहा तो यह भी जा रहा है कि उन्होंने एग्ज़ाम क्लियर करवाने के एवज़ 80 लाख रुपये तक वसूले. एसटीएफ की जांच के खुलासों पर नज़र बनी हुई है और इसी बीच सचिवालय की भर्ती को लेकर भी बवाल खड़ा हो गया है. सचिवालय में सुरक्षा गार्ड्स की नियुक्ति में धांधली को लेकर एसटीएफ ने 6 लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया सूत्रों के अनुसार सुरक्षा गार्ड्स का चयन भी की चयन प्रक्रिया के तहत ही हुआ था. खास बात यह है कि एग्जाम का पेपर भी लखनऊ की उसी प्रिंटिंग प्रेस से लीक हुआ,जहां के एक कर्मचारी को एसटीएफ दिसंबर में हुए एग्जाम के मामले में पहले ही पकड़ चुकी है. गौरतलब है उत्तराखंड के सचिवालय में सुरक्षा में जितने भी कर्मचारी तैनात रहते हैं, उनके लिए अलग कैडर व्यवस्था है. एसटीएफ ने जांच में पाया है कि सुरक्षा गार्ड की भर्ती की प्रक्रिया के दौरान आरोपियों ने 10 लाख में पेपर अभ्यर्थियों को बेचा था. पेपर लीक मामले पर जिस तरह से एक के बाद एक खुलासे हुए हैं, उसके बाद बहस होने लगी है कि क्या उत्तराखंड में सरकारी नियुक्तियां दलालों के चंगुल से कभी बाहर भी रही होंगी? राज्य की पहली निर्वाचित सरकार के कार्यकाल में पुलिस सब इंस्पेक्टर भर्ती प्रक्रिया पर उंगलियां उठी थीं. मामला हाईकोर्ट गया. यहां तक कि एक आईपीएस अधिकारी को तब सेवा से बर्खास्त कर दिया गया, लेकिन कई अभ्यर्थियों को मायूसी हाथ लगी. पटवारियों की भर्ती में भी धांधली का आरोप लगे. उस भर्ती में भी कुछ अधिकारियों पर गाज गिरी लेकिन जो नियुक्ति पा गए वो खुशकिस्मत रहे. 2007 में सरकार सत्ता में आई. ईमानदार छवि वाले के पास सरकारी नौकरी के सिलेक्शन के लिए हुए कुछ एग्जाम्स में गड़बड़ी की शिकायत आई. इसके बाद खंडूरी सरकार ने फैसला लिया कि क्लास थ्री के सभी एग्जाम्स में सिलेक्शन का आधार रिटन एग्जाम में आए नंबर होंगे. मतलब यह हुआ कि इंटरव्यू प्रक्रिया पूरी तरह से खत्म. अब जिस तरीके से अधीनस्थ कर्मचारी चयन आयोग के एग्जाम में गड़बड़ियों की शिकायत मिली है, उससे एक बात साफ हो गई है कि इंटरव्यू खत्म करने का फैसला भी नौकरी के ब्रोकरों को नहीं रोक पाया. बेरोजगारों की नौकरियों को बाजार में बेचने वालों ने युवाओं के लिए बड़ा संकट खड़ा कर दिया है। उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग में पेपर लीक मामले पर एक के बाद एक खुलासों ने यह साबित कर दिया है कि बेहद पारदर्शी मानी जाने वाली परीक्षाएं भी बाजारों में खुले गड़बड़ी का शिकार हो रही थीं। युवा जिन नौकरियों के लिए मेहनत कर रहे थे, कुछ लोग मुंह मांगे दामों पर उन्हीं नौकरियों को बेच रहे थे। चौंकाने वाली बात यह है कि पूर्व में हुई कई परीक्षाओं की भी जांच के आदेश दिए गए हैं। अब पिछली तमाम परीक्षाएं भी सवालों के घेरे में आ खड़ी हुई है। मामला इतना ही नहीं है सहकारिता जैसे विभागों में पहले ही नियुक्तियों पर सरकार खुद जांच बिठाकर सवाल खड़े कर चुकी है। उत्तराखंड अधीनस्थ सेवा चयन आयोग भी शक और सवालों के घेरे में आ गया है। आयोग इसमें अभी तक सीधे तौर पर भले ही शामिल न हो, लेकिन लापरवाही बड़े स्तर की नजर आ रही है। मास्टरमाइंड आउटसोर्स कंपनी का है, लेकिन एसटीएफ आयोग के अधिकारियों की भूमिका की भी जांच कर रही है।
पेपर लीक के खेल की शुरुआत आयोग की खुद की प्रिंटिंग प्रेस से हुई और किसी को कानोंकान खबर नहीं हुई। वहां के सीसीटीवी फुटेज सुरक्षित तो कर लिए, लेकिन किसी ने इनमें कैद हुई हरकतों पर गौर नहीं किया। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि आयोग परीक्षा का सारा काम आउटसोर्स कंपनी आरएमएस टेक्नो सॉल्यूशन को सौंपकर खुद सो गया। किसी परीक्षा को आयोजित कराने में मैनपावर और तकनीकी सहायता तो किसी कंपनी की ली जा सकती है। मगर, इसकी देखरेख तो आयोग को ही करनी होती है।पेपर ठीक छपे, सही सेट बने और परीक्षा में किसी अनुचित साधन का उपयोग न हो, इसकी पूरी जिम्मेदारी परीक्षा नियंत्रक की होती है। मगर, यहां परीक्षा नियंत्रक तो कहीं नजर ही नहीं आ रहे। पेपर लीक के खेल की शुरुआत लखनऊ से नहीं बल्कि रायपुर स्थित आयोग की प्रिंटिंग प्रेस में हुई। यह क्षेत्र पूरी तरह से सीसीटीवी कैमरों की निगरानी में था। इसके बावजूद यहां आसानी से आरएमएस टेक्नो सॉल्यूशन के कर्मचारी ने पेपर को अपनी पेन ड्राइव में ले लिया।हर काम देखरेख में हुआ, यह भविष्य में दिखाने के लिए सीसीटीवी फुटेज को सुरक्षित भी रख लिया गया। मगर, एक बार भी इसे देखने की जहमत नहीं उठाई गई कि यहां किसने क्या हरकत की। यह सब लापरवाही है या कुछ और यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा, लेकिन एसटीएफ जांच के दायरे में अब सब आ गए हैं।
एसएसपी ने बताया कि इस मामले में क्लीन चिट किसी को नहीं दी गई है। इस मामले में अगर आयोग में किसी पर आपराधिक मामला नहीं बना तो लापरवाही की रिपोर्ट तैयार की जाएगी। इसकी एक रिपोर्ट शासन को भेजी जाएगी ताकि गंभीर लापरवाही बरतने वालों पर कार्रवाई हो। परीक्षा आयोजित कराने से ज्यादा पेपर बनना, छपना, सेट तैयार करना, पैकेजिंग करना ये सब गोपनीय काम होते हैं। किसी प्राइवेट कंपनी के भरोसे हजारों युवाओं का भविष्य नहीं सौंपा जा सकता, इसके लिए आयोग के कर्मचारियों और अधिकारियों को भी इन सब कामों की निगरानी करनी होती है। अपनी प्रेस में तो सब मौजूद होते हैं। कंपनियों की प्रेस में भी ड्यूटी लगाई जाती है। मगर, लखनऊ की प्रेस में कोई भी कर्मचारी मौजूद नहीं था। सवाल उठ रहे हैं कि ये भी लापरवाही है या कुछ और? उत्तराखंड को बनाने में आमजन की सीधी सहभागिता रही, इसमें हर वर्ग का संघर्ष रहा, लेकिन जब राज्य के बारे में सोचने व सरकारों के कार्यो के आकलन का मौका आया तो सभी सरकार से अपनी-अपनी मांगों को मनवाने में लग गए। ऐसा लग रहा है कि उत्तराखंड राज्य का गठन ही कम काम बेहतर पगार, अधिक पदोन्नति और ज्यादा सरकारी छुट्टियों, भर्तियों में अनियमितता व विभिन्न निर्माण कार्यो की गुणवत्ता में समझौता करने के लिए हुआ है। मानो विकास का मतलब विद्यालय व महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, अस्पतालों व मेडिकल कालेजों के ज्यादा से ज्यादा भवन बनाना भर है, न कि उनके बेहतर संचालन की व्यवस्था करना। हर साल सड़कें बनाना मकसद है, पर हर साल ये क्यों उखड़ रही हैं, इसकी चिंता न तो सरकारें करती हैं और न ही विपक्ष इस पर सवाल उठाता है। जाहिर है कि करोड़ों रुपये के निर्माण में लाभार्थी पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने हैं। अलग राज्य बनने के बाद ऐसा क्या हुआ जो उत्तर प्रदेश में ही रहते तो नहीं हो पाता। अगर कई जमीनी मुद्दों को सत्ताधारी नहीं देखते हैं या छिपाते हैं तो इसके कारण समझ में आते हैं, लेकिन विपक्ष की खानापूर्ति तो चिंता का कारण बनती है। जाहिर है कि इन 22 सालों में जवाबदेह व्यवस्था नहीं बन पाई है। दोनों प्रमुख दलों ने प्रदेश को मुख्यमंत्री तो दिए, लेकिन जननेता नहीं। सत्ता के सिंहासन पर बारी-बारी से दल तो बदले, लेकिन तौर-तरीके नहीं। इन वर्षो में राज्य की राजधानी का मसला तक नहीं सुलझ पाया। आज राज्य के पास गैरसैंण में शीतकालीन राजधानी है व देहरादून में अस्थायी राजधानी। भावनाओं की कीमत पर जमीनी हकीकत से किनारा न किया गया होता तो 22 सालों में स्थायी राजधानी तो मिल ही गई होती। नौकरशाही का खामियाजा आमजन ने भुगता, लेकिन सत्ताधारी तो इसमें भी मुनाफा कमा गए। हर विफलता के लिए नौकरशाही को कोसने वाले सफेदपोश व्यक्तिगत स्तर पर लाभार्थी ही रहे हैं। जब उत्तर प्रदेश का विभाजन हुआ तो यह माना जाता रहा कि अब नवोदित जवाबदेही किस पर बनती है ये वाजिब सवाल है, पूछा जाना चाहिए।? भर्ती घोटाले पर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने बड़ा फैसला लेते हुये जिन परीक्षाओं में गड़बड़ी के साक्ष्य मिले हैं उन्हें निरस्त कर नए सिरे से चयन प्रक्रिया शुरु की जाएगी. मुख्यमंत्री ने एक फेसबुक पोस्ट के माध्यम से यह भी बताया कि भर्ती घोटाले में में दोषियों को चिन्हित कर उनकी गिरफ्तारी, अवैध संपत्ति को ज़ब्त करने और गैंगस्टर एक्ट व पीएमएलए में कार्यवाही की जाएगी. मुख्यमंत्री के पिछले दिनों के तेवर से पिछले कुछ दिनों से कयास लगाये जा रहे थे कि युवा मुख्यमंत्री कोई कड़ा फैसला लेने जा रहे हैं.मुख्यमंत्री के पोस्ट से इस बात की पुष्टि नहीं होती है कि किन किन परीक्षाओं को निरस्त किया जायेगा लेकिन मुख्यमंत्री यह साफ-साफ कहा है कि जिन परीक्षाओं के माध्यम से दागी व्यक्तियों को नियुक्ति मिली है उनकी नियुक्ति निरस्त करते हुए उनके विरुद्ध नियमानुसार कार्यवाही की जाएगी. मुख्यमंत्री ने अधिकारियों के साथ एक उच्च स्तरीय मीटिंग के बाद इस फैसले की जानकारी साझा की भर्ती घोटाले में उत्तराखंड के बड़े-बड़े नेताओं के शामिल होने की बात कही जा रही है. पूर्व सरकार में हुये इस घोटाले में आरोप है कि भर्ती घोटाले में कई विधायक और राज्य कर्मचारी भी शामिल हैं.अब तक हुई जांच में कई बड़े-बड़े नामों पर उँगलियाँ उठी हैं हालांकि सभी ने अपना दामन बचाए रखा है. आरोप था कि भर्ती घोटाले में बड़ी मछलियों को पकड़ने के बजाय छोटी मछलियों को पकड़ खानापूर्ति की जा रही है. मुख्यमंत्री की इस घोषणा के बाद यह तय है कि सरकार ने साफ नियत से जांच शुरु करने की ओर पहला कदम तो बढ़ा ही दिया है. 22 साल के उत्तराखंड में आज तक जितनी सरकारी भर्तियां हुई हैं, क्या वो कभी भी साफ-सुथरी हुईं?