क्या आप इन्हें जानते हैं?कौन थे ये कला के मौन साधक?
रानीखेत
रचना जिनका कर्म रहा
उत्तराखण्ड की धरती कला, साहित्य एवं रचनाधर्मियों के लिए बेहद उर्वरा रही है। हिमालय की गोद में ऐसे अनेक रचनाकार जन्में जिन्होंने देश-दुनिया में अपनी लेखनी और तूलिका से खूब नाम रौशन किया मगर अनेक रचनाकार, कलाकार ऐसे भी थे जो बहु आयामी रचनाकार तो थे बावजूद उनकी रचनाशीलता खुद के गृह नगर -कस्बे में अधिकंाश लोगों की नजर से छिपी ही रही या यू कहें कि खुद को स्थानीय स्तर पर प्रचारित करने का लोभ उनमें रहा ही नहीं। हालांकि कला , साहित्य के विस्तृत पटल पर अपनी कृतियों से अमिट छाप छोड़ उन्होंने साहित्य और कला के पारखियों से मुक्तकंठ प्रशंसा अर्जित की। जी हां, यहां हम बात कर रहे हैं भैरव दत्त जोशी की। कला एवं साहित्य पर समान पकड़ रखने वाले भैरव दत्त जोशी रचनाधर्मियों के मध्य कोई अनजान नाम नहीं है,आज भैरव दत्त जोशी हमारे बीच नहीं है मगर अपनी कृतियों में वह आज भी जीवित हैं।
भैरव दत्त जोशी एक ऐसा उल्लेखनीय नाम है जो शांतचित्त भाव से एक साधक की भांति कला की मौन साधना में रत रहे चाहे वह हिंदी काव्य हो, चित्रकारी अथवा तांत्रिक कला। 8 मार्च 1918 को रानीखेत के खड़ी बाजार में जन्मे भैरव दत्त जोशी ने कला एवं साहित्य के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनायी। कला के क्षेत्र में जहां भैरव दत्त जोशी ब्रूस्टर से प्रभावित रहे, वहीं कवि सुमित्रानदंन पंत और नाटककार पं0 गोविंद बल्लभ पंत से आपको साहित्य क्षेत्र में लिखने की प्रेरणा मिली। समकालीन भारतीय साहित्य अकादमी की द्विमासिक पत्रिका और अन्य ख्यातिलब्ध पत्र- पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। भैरव दत्त जोशी का ‘आवाजें आती हैं’शीर्षक से एक कविता-संग्रह भी प्रकाशित हुआ। भैरव दत्त जोशी ने 11वीं तक की शिक्षा राजकीय इंटर कालेज अल्मोड़ा से प्राप्त की। आपके रचना कर्म की जिक्र करें तो आपने 1947 से 1949 तक एक क्षेत्रीय साप्ताहिक का कुशल सम्पादन और प्रकाशन किया, इतना ही नहीं भारत सरकार के गीत एवं नाट्य प्रभाग और आकाशवाणी के लिए गीत नाट्यों की रचना की।
साहित्य कर्म से जुड़ाव के अतिरिक्त स्व0जोशी लोक कला और तांत्रिक कला के विशेषज्ञ रहे ।कुमाऊं कल्चरल एसोसिएशन के संयुक्त सचिव के रूप में1942 से 1957तक कुमाऊं, गढ़वाल की पूर्व तथा तत्कालीन लोक संस्कृति, विविध तांत्रिक यंत्रों, विश्वासों, परम्पराओं, गाथाओं, गृह सज्जा, भीति चित्रों के वास्तविक स्वरूप पर स्व0 जोशी ने शोधकार्य किया। 1955 से 1977 तक एक स्वतंत्र चित्रकार के रूप में दिल्ली में आपकी चित्र प्रदर्शनियां कला मर्मज्ञों द्वारा सराही गई। 1992 में आॅल
इंडिया फाइन आर्ट एंड क्राफ्ट सोसायटी ने आपको वैटरन पेंटर्स अवार्ड में रजत पत्र, शाल तथा आजीवन वार्षिक अनुदान से सम्मानित किया।1992 में हीसंस्कृति विभाग भारत सरकार ने स्व0 जोशी को विशिष्ट चित्रकार की मान्यता देते हुए आपको आजीवन आर्थिक फेलोशिप से सम्मानित किया।
वर्ष1996-97 में स्व0 जोशी के चित्रों की प्रदर्शनी ललित कला अकादमी द्वारा आयोजित की गई थी।यंत्र चित्रों के अतिरिक्त स्व0 जोशी ने प्रकृति में रंगों को अपनी तूलिका से संवारा। 12 मई 2010 को प्रकृति का यह चितेरा कलाकार हमेशा के लिए विदा हो गया। स्व0जोशी का रचनाकर्म कला प्रेमियों के लिए प्रेरणादायी धरोहर है। दरअसल, ऐसे कई कलाकार हमारे इर्द-गिर्द है जिनकी कला साधना से हम ही नहीं, समाज का एक बड़ा वर्ग अनभिज्ञ है। आज आवश्यकता है ऐसे साधकों के कर्म को समाज के आलोक में लाने की ताकि रचनाकर्म से जुड़ाव रखने वाला नई पीढ़ी का एक तबका कुछ सीख सके। सच तो यह है कि पुराने रचनाकर्मियों में जो सीखने -सिखाने का जो जज़्बा था वह नई पीढ़ी के कलाकारों में चुकता दिखाई देता है ऐसे में स्व0 जोशी जैसे रचनाकार हमेशा याद आते है।