ज़रा ठहर कर सोचें,अपने ही राज्य में हम कहां खडे़ हैं!

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दो दशक पहले जब हम नए नवेले राज्य के रहवासी बने थे तब जरा भी इल्म नहीं था कि ’अपने’ राज्य में भी हम धीरे -धीरे राजनीतिक अपसंस्कृति के असहाय बंदी बनकर रह जाएंगे।हमने एक ऐसे राज्य सेे छुटकारा पाया था जहां पूंजी और माफियाराज की चाैतरफा जकड़बंदी,सत्ता के चाकरों द्वारा लुटेरे राजपाट की सुरक्षा, भ्रष्टाचार, अवसरवाद का राजनीति का अविछिन्न हिस्सा बन जाना हमें मर्मांतक पीड़ा देता था। लेकिन ’अपने’ राज्य के 22 साल के दुःखदायी सफरनामे ने साफ कर दिया है कि अपने शिशुकाल से ही भ्रष्टाचार को अंगीकार कर चुका यह राज्य यौवन की दहलीज तक आते-आते अपने मातृराज्य का न सिर्फ पूर्ण संस्करण अपितु उससे भी आगे निकलने की होड़ में शामिल हो चला है जहां एक भ्रष्ट और आततायी धनतंत्र सत्ता के इर्द गिर्द घेरा डाल कर बैठा हुआ है।
राज्य बना तो यहां के रहवासियों में एक शुचितापूर्ण राजनीतिक संस्कृति की आस जगी थी किसे पता था कि यहां भी सत्ता और भ्रष्टाचार का नाभिनाल संबंध बनते देर नहीं लगेगी। बीते वर्षों में राज्य में जिस तरह से घृणित राजनीतिक खलयुद्ध खेला गया और राजनीतिक दलों ने पूंजी के सहारे सामूहिक रूप से राजनैतिक ‘पाप’ किया उसने न सिर्फ यह साफ कर दिया कि राज्य की राजनीति भ्रष्टाचार,अपसंस्कृति की अंधेरी सुरंग से गुजर रही है अपितु सत्ता केन्द्रित पूंजी और भ्रष्टाचार ने लोकतंत्रीय संस्थाओं को भी खोखला और निष्प्राण बनाने की शुरूआत कर दी है। कौन जानता था कि इतनी जल्दी उत्तराखंड की गौरवमयी राजनीतिक परम्परा और स्वर्णिम इतिहास पर भ्रष्टाचार, घोटालों,दल-बदल, खरीद-फरोख्त,और क्षुद्र व्यक्तिगत स्वार्थों का काला धब्बा चस्पा हो जाएगा?उत्तराखंड की राजनीति जिस तरह मौजूदा वक्त में मूल्यहीनता और अवसरवादिता को प्रश्रय दे रही है,भ्रष्टाचार को अपना अनिवार्य अंग मानकर बैठी है, इसका सीधा असर यह हुआ है कि राजनीतिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार की प्रतिच्छाया में समाज के अंग-उपांग भी भ्रष्टाचार से बजबजाने लगे हैं।आज एक आम व्यक्ति न विधायिका के नाम पर उत्साहित होता है,न कार्यपालिका के, और न ही न्यायपालिका के नाम पर।यह उत्साहहीनता समाज के लिए बेहद दुःखद कही जा सकती है। जिसके टूटे बिना भविष्य के सुख स्वप्न की कल्पना कदापि नहीं की जा सकती। तो क्या यह जरूरी नहीं कि इसे तोड़ने के लिए भ्रष्टाचार के विरूद्ध नए सिरे से मूल्यगत बहस और व्यवहार की शुरूआत की जाय? क्या राजनीति के साथ- साथ समाज के अंग-उपांगों का, और स्वयं का भी चरित्र शोधन जरूरी नहीं है ?इसी समाज की इकाई बतौर हम ईमानदारी के प्रति निष्ठा का शब्दोच्चार करते हुए भी अंदर से कितने स्वार्थी और दुर्बल हो गए हैं स्वयं हमें ही नहीं पता। स्वयं को क्षुद्र स्वार्थ से दूर रखते हुए आज आम जन को निराशा की शीत निद्रा से जगाने की आवश्यकता है,क्रांतियां जन से सम्पन्न होती हैं, अपने आप नहीं हो जाती।इसके लिए कलम के सिपाहियों को सम्मान और सुविधापूर्ण जीवन की चाह में सत्ता की चाकरी छोड़ सामाजिक मोर्चे पर आना होगा। नवजवानों को सत्ता से दिए गए लोभ की मृगमरीचिका से बाहर निकल कर राजनीतिक तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा होना होगा। देखना, अगर ऐसा हो पाया, तो जो लोग आज भ्रष्टाचार को राजनीति और समाज की सामान्य परिघटना मानकर मान्यता देते आए है, भ्रष्टाचार के खिलाफ उनका अनुत्साह टूटेगा, एक नई चेतना करवट लेगी, और एक नई क्रान्ति पूँजी की सत्ता के खिलाफ फैसलाकुन होगी।
आज जरूरत है अपने मध्य से एक ऐसी राह तलाशें जो मर्यादा, मूल्य, सिद्धांत , विचार, से रिक्त अवसरवाद,स्वार्थ, और भ्रष्टाचार की बुनियाद पर बैठी राजनीति को अवसान पर ले जाए, क्यों कि ऐसा किए बिना सार्थक, शुचितापूर्ण, राजनीतिक संस्कृति,एवं सार्वजनिक जीवन एवं व्यवस्था का आरम्भ हो ही नहीं सकता।

संपादक