“हमारे शहर में ऐसे मनाजि़र रोज मिलते हैं कि सब होता है चेहरे पर मगर चेहरा नहीं होता”

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मुनव्वर राना का‌ यह शेर ज़हन में अक्सर खदबदा उठता है

हमारे शहर में ऐसे मनाजि़र रोज मिलते हैं
कि सब होता है चेहरे पर मगर चेहरा नहीं होता‘

लगा कि मुनव्वर राना ने जैसे अपने शहर रानीखेत का ही मनाजि़र पेश किया हो। सच, मौजूदा रानीखेत शहर का यही हाल है, जहां चेहरा पढ़ना वाकई मुश्किल होता जा रहा है।शहर में वह चेहरा ढंूढे नहीं मिल रहा, जिसमें दूजे के प्रति आत्मीयता का भाव हो, लगाव हो,सौहार्द, स्नेहसिक्त सम्बंधों का उजलापन प्रस्फुट होता हो।शहर में सियायत का कलुष इस कदर बढ़ गया है कि हर चेहरा एक-दूजे को अविश्वास भरे भाव से देखता है और एक दूसरे की सियासी नस्ल पढ़ने की कोशिश करता है। दरअसल अपने सियासी नफे के लिए शहर में पिछले सात-आठ सालों में फासले बढ़ाती सियासत ने नागरिक एकजुटता के बीच एक तेज़ाबी रेखा खींच दी है। अकारण पैदा की गई नफरत के धरातल का दायरा बढ़ता जा रहा है या यूं कह लें कि बढ़ाया जा रहा है। क्योंकि क्षेत्र में विकास की उम्मीद बांटने वाले भाग्य विधाताओं ने इस उभार को ही भविष्य की ’जीत‘ पाने का चालाकी भरा साधन समझ लिया है। लेकिन सियासत की इस गिरोह बंदी ने विकास के नाम पर शहर को कितना पोलियो ग्रस्त कर छोड़ा है यह कोई नहीं समझना चाहता।
छावनी परिषद को लेकर यहां के रहवासियों की दुश्वारियों का सवाल हो अथवा दशकों से जिला मुख्यालय का ओहदा पाने की ललक, अपने मध्य से गद्दी पर चढ़े सियासतदानों से यहां के रहवासियों की उम्मीद हमेशा रही कि वे उनकी दशकों की पीड़ा, निराशा व संताप को हर लेंगे। लेकिन आज भी पूरा परिदृश्य उसी पीड़ा से भरा है जो कई दशक पहले थी।क्या आप को नहीं लगता कि, हमारे ‘नायकों’ ने यह समझ लिया है कि समस्या पैदा होने पर शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन रेत में गढ़ा लेने से कुछ समय बाद समस्या अपना समाधान खुद ढंूढ लेगी?सच कहूं, तो सियासत एक बेहया व्यापार में तब्दील हो चुकी है जहां चारों ओर कीच ही कीच है और सियासत से जुड़ा व्यक्ति इस कीचड़ में लिथड़ने बल्कि ऊभ-चूभ होने पर भी परम आनंद का अनुभव कर स्वयं को धन्य मान रहा है। दुर्भाग्य यह है कि देश-समाज का मुस्तक़बिल भी इस कीच धारा में नहाने को व्याकुल है। ऐसे में छात्र-युवाओं के बूते खड़े होने वाले जनोन्मुखी आंदोलनों का बिला जाना स्वाभाविक है।
सियासत की गिरोह बंदी ने शहर में अपने हक के लिए उठने वाली इंकलाबी मुट्ठियों को बे-जान कर छोड़ा है और आंदोलनों की जमीन को बंजर। ऐसे में आंदोलनों से अदम हो चुके शहर में लस्त-पस्त पड़े चेहरे विकास की लड़ाई के लिए किससे उम्मीद करें? क्योंकि किसी दौर में अपनी क्षमता, संकल्प और संघर्ष का लोहा मनवाने वाले ‘रण बांकुरे’ सियासत की खोह में समा गए हैं और जब शहर में निकलते हैं तो सियासत का मुखौटा लगाकर,क्योंकि बकौल मुनव्वर राना ’…सब होता है चेहरे पर मगर चेहरा नहीं होता‘। और क्या यह सच नहीं, कि मुखौटा लगाकर चलेंगे तो गिरें भले ही न टकराएंगे जरूर।यही टकराहट शहर को विच्छिन कर रही है और समरसता है कि टूटे पारे की मानिंद ढुलक कर बिखर रही है।
इस माटी की पैदाइश होने के कारण यह सवाल मुझे हमेशा बेचैन करता है कि 153 साल के इस शहर को आखि़र किस की नज़र लगी?क्या हमने कभी सोचा कि 153 साल बाद भी यह शहर कहां खड़ा है मुकाबिल अन्य हिल स्टेशनों के? समस्याओं से भागकर सियासत के मुखौटों में चेहरे छिपाने से भी शहर को रिवर्स गेर लग रहा है। क्या यह जरूरी नहीं कि सियासत का जयकारा लगाती भीड़ बनने से बेहतर हम एक रहवासी के नाते शहर के विषय में चिंतन- मनन करें और आगे बढ़े?सियासतदान हमेशा चाहेंगे कि नागरिक संज्ञाशून्य रहें, लेकिन शहर के रहवासियों का जड़वत बने रहना इस बिखरते- पिछड़ते शहर के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। नगर पालिका, एवं जिला बनाने की अनुगूंज एक बार फिर शहर के वातावरण में तारी है।क्या इन्हें बनाने से पहले यह जरूरी नहीं कि हम ‘शहर’ बनाएं।वह शहर जिसका गौरवशाली अतीत सियासत के डलाव घर में समाविष्ट होता जा रहा है। और सियासी रहनुमा नागरिक एकजुटता के मध्य तेजा़बी रेखा खींचने के नित नायाब नुस्खों की तलाश में हैं इसलिए-
‘इस शहर के रहनुमाओं से ज़रा बच के रहो
ये सिर का बोझ नहीं, सिर उतार लेते हैं।’