विलुप्त होती उत्तराखंड की प्राचीन काष्ठकला के संरक्षण के लिए समर्पित ‘सुरे’ ग्राम का काष्ठ शिल्पी राधेश्याम

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सी एम पपनैं

मानसखंड के अनुसार, उत्तराखंड स्थित, द्वाराहाट के नजदीक पौराणिक सूर्य क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध, ‘सुरे’ ग्राम, प्राचीन काल से ही वास्तुकला और मूर्ति कला का प्रमुख केन्द्र रहा है। इस ग्राम मे, पारंपरिक तौर पर, पीढी दर पीढी काष्ठकला से जुडे कुल मे जन्मे, राधेश्याम पुत्र जसराम द्वारा, 47 वर्ष की उम्र में, सीमित संसाधनों के बल, काष्ठकला के संरक्षण व संवर्धन के क्षेत्र मे, अद्भुत व प्रभावशाली कार्य कर, क्षेत्र के नवयुवको, कला प्रेमियों व कला विशेषज्ञयो को अपनी कला की ओर आकर्षित किया है।

काष्ठकला की विभिन्न विधाओ मे पारंगत, उत्तराखंड की इस अंजान और छिपी हुई प्रतिभाशाली शिल्पी की काष्ठकला का प्रभावशाली कारनामा, उत्तराखंड की सु-विख्यात पर्यटन नगरी रानीखेत मे लगी प्रदर्शनी मे, प्रदर्शित हुआ था। काष्ठकला के बल ही, इस शिल्पी के कुल-कुटम्बियों का गुजर-बसर, पीढी दर पीढी चलायमान रहा है। एक वक्त था, जब इस शिल्पी के गांव मे, निवासरत करीब पांच सौ परिवार इस कार्य से जुड़े हुए थे, जिन्हे ‘ओढ़’ कह कर पुकारा जाता था। राधेश्याम अवगत कराते हैं, जनमानस की आधुनिकता की ओर बढ़ चली रुचि, नीति-निर्माताओ की अज्ञानता व इस कला के प्रति बेरूखी तथा सरकार द्वारा ग्रामीणों के अहित मे बनाए गए वन कानून ने, काष्ठकला पर पारंपरिक तौर पर कार्य कर रहे ‘ओढो’ के धन्धे को, गहरा आघात पहुचाया है। हाशिये पर चले गए, इस व्यवसाय से जुड़े लोग, आजीविका के लिए दूसरे साधन अपनाने के लिए पलायन करने को मजबूर हुए हैं। गांव से शहर को पलायन कर, जो भी कार्य प्रवास मे मिला, उसे करने को विवश हुए हैं।

स्वयं इस काष्ठ शिल्पी, राधेश्याम द्वारा भी, दसवी की शिक्षा, राजकीय इंटर कालेज तकुल्टी से पूर्ण कर, 1994 मे, दिल्ली को पलायन कर लिया था। दिल्ली महानगर मे दर-दर खाक छान, दो तीन प्राईवेट कम्पनियों मे, निष्ठा पूर्वक, हाड़तोड़ मेहनत से काम करने के बाद भी, मन मे उस सकुन की प्राप्ति, जिसे प्राप्त करने यह शिल्पी दिल्ली को पलायन किया था, प्राप्त न होने से पुन: 2010 मे, दिल्ली महानगर की आपा-धापी व संघर्षमयी जीवनशैली को त्याग, घर-गांव के शांत, रमणीक व सकून देने वाले माहौल मे वापसी कर, अपने बाप-दादाओ के पुश्तेनी, काष्ठकला के काम व परंपरा को आगे बढ़ाने मे ध्यान केन्द्रित कर, बांस, तिमुर, चीड़, तुन, शीशम, पयो, देवदार, मेहल, थुनेर तथा किल्मोड जड़ इत्यादि, जो भी लकड़ी उपलब्ध हो जाए, उन पर विभिन्न प्रकार की प्रभावशाली नक्काशी कर, कलाकृतियां बनाना आरंभ किया।

निरंतर बारह वर्षो की जी तोड़ मेहनत व लगन के परिणाम स्वरूप, इस काष्ठ शिल्पी को, निर्मित कलाकृतियों की प्रदर्शनी, दिल्ली, देहरादून व रानीखेत मे आयोजित प्रदर्शनियों में लगाने का अवसर प्राप्त हुआ। निर्मित कलाकृतियों की सभी जगह दर्शकों द्वारा, खूब तारीफ होने लगी, उन कलाकृतियों की थोडी-बहुत खरीद-फरोख्त भी होने लगी। निर्मित कलाकृतियों से प्रभावित होकर, वस्त्र मंत्रालय भारत सरकार द्वारा 2019-20 में प्रदर्शित प्रदर्शनी में, इस शिल्पी को वुड क्राफ्ट हस्तशिल्प मे जिला स्तरीय चयन समिति द्वारा, प्रथम पुरुष्कार से नवाज कर, इतिश्री की गई।

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निष्ठा पूर्वक सोचे गए उद्देश्य व सफलता की आस मे, इस शिल्पी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। जज्बा व होसला कायम रख, उक्त कला का संवर्धन हो, यह कला, रोजगार का हिस्सा बने, इस सोच व उद्देश्य के तहत, इस शिल्पी द्वारा, क्राफ्ट हस्तशिल्प के सैद्धांतिक एव व्यवहारिक स्तर पर, करीब दो सौ बच्चों को, प्रशिक्षण देने का सौभाग्य प्राप्त किया। देखा जा रहा है, प्रशिक्षण प्राप्त लोग, स्थानीय स्तर पर, अन्य रोजगार उपलब्ध न होने से, समय का सदुपयोग कर, विलुप्त होती इस कला का संरक्षण व संवर्धन कर, संतोष व्यक्त कर रहे हैं।

अपने बल व सोच से, काष्ठकला के क्षेत्र मे, रोजगार उत्पन्न करने, जरूरत मंदो को आत्मनिर्भरता की ओर बढाने वाले राधेश्याम नामक इस काष्ठशिल्पी को, प्रशासन, स्थापित सरकारों व चुने गए जनप्रतिनिधियो द्वारा, किसी भी स्तर पर, किसी भी प्रकार की, आजतक कोई भी ऐसी मदद व भविष्य की आस नजर नहीं आई, जिस बल यह शिल्पी, अपनी काष्ठकला को एक बडे उद्यम में तब्दील कर, आज के युवाओ को राज्य के पहाडी़ अंचल से पलायन करने से रोक सके। राज्य व देश की आर्थिकी के संवर्धन हेतु मददगार बन सके। राज्य के बेरोजगार युवाओ को उक्त कलाओ के प्रशिक्षण से रोजगार प्राप्ति की ओर, अग्रसर कर सके।

काष्ठशिल्पी राधेश्याम के गांव ‘सुरे’ की आबादी वर्तमान में 350 के करीब है, जिसमे 20 परिवार सामान्य व 75 पिछडी जाति के हैं। गांव मे बेरोजगार बहुत हैं। अपने बाप-दादाओ के काष्ठकला से जुडे पुश्तेनी कार्य पर आज के युवा गर्व तो करते हैं, परंतु पुश्तेनी काष्ठकला के कार्य को करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। क्योकि इस कार्य मे अब उन्हे, गुजर-बसर नाकाफी लगती है, अपेक्षा अन्य कार्यो के। आज के सम्पन्न लोगों की चाहत मुताबिक, खेतो से सडीगली जड खोद कर कलाकृतियां बना भी ली जाऐ। मिस्त्रीयो से लकड़ी के टुकड़े खरीद कर काम चला भी लिया जाऐ तो, जीतोड़ मेहनत से की गई नक्काशी का उचित दाम नहीं मिल पाता है। कलाकृतियों को बेचने की समस्या उभर कर सामने आती है।

अवलोकन कर ज्ञात होता है, कोई कितना भी बड़ा शिल्पी क्यों न हो, गांव-देहात मे उसकी कला का कोई मूल्य नहीं होता है। घर-गांव से शहर की ओर निकल कर ही, उसकी कला को पहचान मिलती है, उसकी कला का स्तर व मूल्य तय होता है। स्थानीय प्रशासन व सरकार, बृहद ग्रामीण रोजगार की दृष्टि से, इस विधा के संरक्षण व संवर्धन हेतु, महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकती है। उक्त काष्ठकला को रोजगार का जरिया बना, शिल्पियों द्वारा निर्मित, कलाकृतियों को बाजार उपलब्ध करा सकती है। उत्तराखंड के परिपेक्ष मे, अवलोकन कर ज्ञात होता है, स्थानीय प्रशासन व स्थापित सरकारो द्वारा, सिर्फ ऐसे शिल्पियों व कला विभूतियों की कला को स्मृतिचिन्हों तक सिमटवा दिया गया है। उक्त शिल्पियों को, सम्मान व प्रोत्साहन के नाम पर, मात्र एक शाल ओढा कर, प्रमाण पत्र व स्मृति चिन्ह प्रदान कर, इतिश्री कर ली जाती है।

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हमारी सरकारों के सम्बंधित विभागों व नीति निर्माताओ को उत्तराखंड की प्राचीन लोककलाओं की तह मे जाकर, अवलोकन करना होगा, उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल की काष्ठ कला में सदियों की अनुभूतिया समायी हुई है। मानसखंड मे, उत्तराखंड स्थित, द्वाराहाट के नजदीक पौराणिक सूर्य क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध ‘सुरे’ ग्राम का नाम, प्राचीन काल से ही वास्तुकला और मूर्ति कला के क्षेत्र मे, सु-विख्यात रहा है। साथ ही आसपास के तकुल्टी, डंगरखोला, निरकोट, पटास, भंटी के गांवो मे, हाथो से लकडी पर तराशी गई नक्काशी और कलाकृतियां आकर्षित करती रही हैं। बारीकी से उकेरे गए पुश्तेनी द्वार, काष्ठकला की सुंदर कारीगरी के दर्शन आज भी, उत्तराखंड के कई गांवो के मकानों में, दृष्टिगत होते हैं। यह काष्ठकला ‘सुरे’ ग्राम के शिल्पियों की सोच व कार्यो की, महत्वपूर्ण देन बताई जाती है।

उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल मे, राजे-रजवाडे, रईस, जमींदार व महाजनों का युग बीत जाने के बाद भी, सम्पन्न परिवार, इस कला के कद्रदान बने रहे थे। यहां तक कि, साधारण घरों मे भी काष्ठ कला के नमूने आम दृष्टिगत होते थे। जो घर जितना सम्रद्ध होता था, उनके द्वार चौखट की कारीगरी भी उतनी ही सम्रद्ध होती थी। चौखट से बुटा, देवी-देवताओ, पेड़-पौंधे, जानवरो, फूलों, यक्ष, यक्षर्णियों इत्यादि के चिन्ह, नक्काशी कर बनाऐ जाते थे। कत्यूरी काल मे कटारमल सूर्य मंदिर में भगवान सूर्यदेव की सर्वाधिक प्राचीन मूर्ति काले पाषाण की नहीं, अपितु वटवृक्ष (बड़ वृक्ष) के पेड़ मे बनी मूर्ति थी। इसलिए इसे, बडदित्य का सूर्य मंदिर कहा जाता है।

अनुमानन, पांच दशक पूर्व तक, स्थानीय ‘ओढो’ द्वारा पारंपरिक तौर पर निर्मित घर, जो स्थानीय पत्थर, मिट्टी, गोबर और लकडी से तैयार किए जाते थे। निर्मित मकानों मे काष्ठकला का अनुपम सौंदर्य होता था। घरों के मुख्य द्वार पर काष्ठ निर्मित, श्रीगणेश व अन्य स्थानीय देवी-देवताओ की मूर्ति होती थी। सर्दियों में ये निर्मित मकान गर्म व गर्मियो मे ठंडे होते थे, साथ ही भूकंप की दृष्टि से मजबूत।

चंद शासन काल में चंपावत तथा अल्मोडा राजधानी होने से, यहां पर, काष्ठकला अधिक दिखती थी। तत्कालीन राजाओं ने इस कला को बढ़ाने मे, महत्वपूर्ण योगदान दिया था। अल्मोडा का लाला बाजार, जोहरी बाजार, खजांची मोहल्ला तथा अंचल के गांवो मे बने मकान, काष्ठकला का जीता जागता उदाहरण होते थे। इन निर्मित मकानों के प्रवेशद्वार, चौखट, आलो, खिडकियों पर नक्कासी हुआ करती थी, जो उक्त मोहल्लो व ग्रामीण घरों की शान हुआ करती थी। यह खूबसूरत काष्ठकला, हर किसी को मोहित करती थी। देवी-देवताओ से लेकर, तरह-तरह डिजाइन की नक्काशी, पहाड़ के हर घर के पहचान के रूप मे थी। काष्ठकला की मूर्तियों का भी यह गौरवशाली व ऐतिहासिक दौर रहा था। चंदवंश के समय, 19वी शताब्दी में, यह काष्ठकला, अपने शवाब पर थी। इस दौर मे, काष्ठकला से जुडे, शिल्पी का, समाज में बड़ा सम्मान भी था।

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यह वह दौर था, जब जंगल पर सबका अधिकार होता था। हक-हकूक के तहत, ग्रामीणों को जंगल से, मकान बनाने के लिए वन अधिकारी द्वारा लिखित मे, दो-चार पेड़ों काटने का अधिकार दे दिया जाता था। लकड़ी बहुतायत में उपलब्ध थी। मकानों में निर्मित काष्ठकला के अतिरिक्त, इस कला में, लकडी से निर्मित वर्तनो मे, पाली, ठेकी, कुमैया, भदेल, नाली का चलन था। बांस, रिंगाल से डलिया, सुप, मोड़ा, कन्डी, चटाई, टोकरी, काष्ठकार बनाकर, अपनी आजीविका चलाते थे। यह अनूठी काष्ठकला, सदियों से चलायमान रही थी। देश को मिली आजादी के बाद, अंचल के ग्रामीण क्षेत्रों में पडी, पलायन की छाया व सरकार द्वारा बनाऐ गए नए वन कानून से, जिसके तहत, जंगल से ग्रामीणों का हक समाप्त कर दिया गया, काष्ठकला मे पारंगत इन शिल्पियों की कला पर ग्रहण सा लग गया। अंचल के हजारो काष्ठकला के शिल्पी, जंगलो से अधिकार छिन जाने के बाद, लकड़ी के लिए मोहताज हो गए, घर-घाट के नहीं रहे। पलायन करने को मजबूर हो गए।

उत्तराखंड की स्थानीय बोली-भाषा मे, लकड़ी से निर्मित घरों के मुख्य द्वार को, ‘खोली’ कहा जाता है। जिसमे श्रीगणेश की मूर्ति, नक्काशी कर बनी होती है। लकडी के अभाव व काष्ठ शिल्पियों के अपने परंपरागत कार्य से हट जाने के बाद, ‘खोली’ के गणेश लुप्त हो गए हैं। हर घर की शान बढ़ाने वाली काष्ठकला अब, स्मृति चिन्हों तक सिमट गई है। अब इस कला को देखने के लिए आंखे तरस गई हैं। सीमैंट, लोहा व कंकरीट के मकान बनने तथा इस प्राचीन कला को किसी भी तरह, संरक्षण न मिलने व पहल न होने से, काष्ठ शिल्पियों की, इस कला के प्रति रुचि घटने से, एक भरपूर सांस्कृतिक परिवेश हमेशा के लिए नष्ट होने की कगार पर है। नई पीढी के लिए यह विधा, सिर्फ इतिहास के पन्नो तक सिमट गई है।

इस प्राचीन पारंपरिक सांस्कृतिक धरोहर को, ‘सुरे’ ग्राम के निष्ठावान काष्ठशिल्पी, राधेश्याम द्वारा, संरक्षित व इस कला के संवर्धन का वीडा उठाना, इस शिल्पी के ज्जबे व होसले को दर्शाता, नजर आता है। आवश्यकता है इस कला को, नए वास्तुशास्त्रीय आयामो से जोडने की, ताकि उत्तराखंड के पहाड़ी अंचल की लुप्त होती, वानस्प्तिक संपदा से जुडी काष्ठकला की धरोहर से जुड़े रहे, इस शिल्पी को रोजगार व इस प्राचीन पारंपरिक धरोहर को लुप्त होने से बचाने की दृष्टि से, विशेष संरक्षण और आर्थिक मदद मिल सके।
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