“पशुधन को समर्पित हैं खतड़वा त्यौहार”

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला एवं प्रशांत मेहता
उत्तराखण्ड में प्रारम्भ से ही कृषि और पशुपालन आजीविका का मुख्य स्रोत रहा है। जटिल भौगोलिक परिस्थितियों के कारण व्यापार की संभावनाएं नगण्य थीं, लेकिन कम उपजाऊ जमीन होने के बावजूद कृषि और पशुपालन ही जीवनयापन के प्रमुख आधार थे। आज भी कृषि और पशुपालन से सम्बन्धित कई पारम्परिक लोक परम्पराएं और तीज-त्यौहार पहाड़ के ग्रामीण अंचलों में जीवित हैं उत्तराखण्ड की संस्कृति और परंपराएं अनमोल हैं। जहां कुल देवता, स्थान देवता, भू देवता, वन देवता, पशु देवता और ना जाने कितनी पूजाओं का प्रावधान है, जो ये साबित करता है कि उत्तराखंड के लोग प्रकृति के काफी करीब हैं। ऐसा ही एक पर्व है खतड़वा। ये एक ऐसा पर्व है, जिसे पशुओं की मंगलकामना का पर्व कहा जाता है। वैसे देखा जाए तो ये दुनिया में अपनी तरह का अकेला पर्व है। जिसे बचाए रखना काफी जरूरी है। एक जगह पर घास के पुतले बनाये जाते हैं, उन्हें फूलों से सजाया जाता है। उस पुतले को अखरोट, मक्का और ककड़ी अर्पित की जाती है। इसके बाद पशुओं के गोठ(गौशाला) की सफाई की जाती है। सभी जानवरों को नहला धुला कर नई हरी घास खिलाई जाती है और उनकी गौशाला में सोने के लिये नई सूखी घास बिछाई जाती है।कुमाऊं में इस त्यौहार के दिन अलग ही माहौल देखने को मिलता है भादों के महीने में मनाया जाने वाला खतड़वा पर्व पशुओं की मंगलकामना के लिये ही होता है। खतड़वा शब्द की उत्पत्ति “खातड़” या “खातड़ि” शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है रजाई या दूसरे गरम कपड़े। बता दे कि सितंबर के महीने में उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में हल्की हल्की ठंड पड़नी शुरु हो जाती है। इस दिन बच्चे जोर जोर से गाते हैं।

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भैल्लो जी भैल्लो, भैल्लो खतडुवा
गै की जीत, खतड़वै की हार
भाग खतड़वा भाग
इस गाने का अर्थ है कि पशुओं को लगने वाली बीमारियों की हार हो। सोचिए कैसी विशाल परंपराओं से भरी पड़ी है उत्तराखंड की धरती। ये ही वो वजह हैं, जिनकी बदौलत उत्तराखंड को देवभूमि कहा गया है। खतड़वा पर्व मनाने और उसकी परम्पराओं से यह सिद्ध होता है,कि खतड़वा जाड़ो के आगमन तथा जाड़ों से स्वयं की और पशुओं की सुरक्षा की कामना का त्यौहार है।

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उत्तराखंड वासी अपनी विशेष परम्पराओं और अपने आपसी प्रेम, प्रकृति और बाल जीवन व स्वास्थ्य को समर्पित विशेष त्योहारों के लिए जग विख्यात हैं। आपसी वैमनस्य को त्यौहार के रूप में मनाने की हम कल्पना भी नही कर सकते हैं। खतडुवा त्यौहारइस तरह से यह त्यौहार पशुधन को स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट बने रहने की कामना के साथ समाप्त होता है। गढ़वाल और नेपाल के कुछ अंशों में भी यह  त्यौहार मनाया जाता हैl  कुछ लोग इसे गढवाल या कुमाऊं की आपसी वैमनस्यता के रूप में भी जोड़ते हैं। एक तर्कहीन मान्यता के अनुसार कुमाऊं के सेनापति गैड़ सिंह ने गढवाल के खतड़ सिंग (खतड़वा) सेनापति को हराया था, उसके बाद यह त्यौहार शुरू हुआ. लेकिन अब लगभग सभी इतिहासकार वर्तमान उत्तराखण्ड के इतिहास में गैड़ सिंह या खतड़ सिंह जैसे व्यक्तित्व की उपस्थिति और इस युद्ध की सच्चाई को नकार चुके हैं और इस काल्पनिक युद्ध का उल्लेख किसी भी ऐतिहासिक वर्णन में नही है।इसलिए यह बात सिर्फ एक मिथ्या तक ही सिमित रह गयी। इसके साथ ही यह पर्व कुमाऊँ क्षेत्र पशुपालकों के अलावा नेपाल, दार्जिलिंग तथा सिक्किम के पशुपालकों द्वारा भी मनाया जाता हैपरंपराओं से भरी है उत्तराखंड की भूमि, यही वजह है जिसके कारण उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। उत्तराखण्ड का सबसे प्रमाणिक इतिहास एटकिन्सन के गजेटियर को माना जाता है, क्योंकि उसने ही पूरे उत्तराखण्ड में घूमकर इसकी रचना की थी। यदि ऐसा कुछ होता तो उन्होंने इसका भी वर्णन जरुर किया होता। इसलिये अब जरूरत है कि हम अपनी समृद्ध धरोहरों के रूप में चले आ रहे खतड़ुआ जैसे अन्य पर्वों को उनमें निहित सकारात्मक सन्देश के साथ मनायें और उनसे जुड़ी भ्रान्तियों को यथाशीघ्र मिटाते चलें जायें, जिससे आने वाली पीढियां भी इन परम्पराओं और लोकपर्वों को खुले मन से मना पायें।
दोनों लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय, देहरादून में कार्यरत हैं।

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