पहाड़ों का दर्द कुछ और है दवा कुछ और .———

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दिनेश तिवारी
मज़ारों के संवेदनशील मुद्दे को उठा कर प्रदेश की धामी सरकार ने यह जता दिया है कि वह भी प्रदेश में ब्यापक साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राह पर है और अपनी पार्टी के आज़माए हुए नुस्ख़े पर ही आगे बढ़ना चाहती है . इस मामले में पड़ोसी राज्य यूपी की राजनैतिक सफलताएँ धामी सरकार को गहरे तरीक़े से प्रभावित कर रही हैं .और योगी आदित्यनाथ उसके रोल माडल बने हुए हैं . अतीक और उसके भाई की पुलिस अभिरक्षा में हुई हत्या के बाद उपजे सवालों के बाद भी भाजपा अपनी चुनावी सफलता को लेकर निश्चिंत है .आर्थिक मोर्चे पर लगातार पिट रही भाजपा की सरकारें अपने साम्प्रदायिक एजेंडे को बड़ी कुशलता के साथ लागू किए हुए हैं और अपनी विफलताओं को छुपाने के लिए यह रास्ता उनके लिए काफ़ी मुफ़ीद भी साबित हो रहा है .कृषि का संकट इस राज्य की सबसे बड़ी समस्या है और यही सवाल कहीं भी एड्रेस नहीं है . राज्य के पूरे भूगोल में खेती , बाग़वानी और पशुपालन आजीविका का सबसे पुराना और सबसे बड़ा और भरोसेमंद साधन है . यह सेक्टर आज भी रोज़गार का अस्सी प्रतिशत अकेले उपलब्ध कराता है और निर्यात के माध्यम से राज्य की आय बढ़ाने में भी योगदान करता है . उतराखंड के इतिहास , समाज ,साहित्य संस्कृति में खेती , बाग़वानी और पशुपालन गहरायी से रचे बसे हैं . लोकगीतों , लोक गाथाओं के समृद्ध संसार में खेती की महक सहज रूप से महसूस की जा सकती है .पलायन की समस्या इस राज्य की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है .और इस समस्या का एक सिरा कृषि के मौजूदा संकट से ही जुड़ा है .यह भी कह सकते हैं कि पलायन के समाजशास्त्र को समझते हुए हम इस समस्या के कारणों की पड़ताल भी बहुत सरलता से कर सकते हैं .आजीविका के सिमटते साधनों के कारण राज्य से अन्यत्र हो रहा पलायन तो चिंता का विषय है ही मगर पहाड़ों से मैदानों की ओर निरंतर हो रहा पलायन और अधिक चिंता का कारण है .लेकिन ताज्जुब है कि राज्य की इस समस्या के समाधान का प्रयास तो दूर इस पर चर्चा तक नहीं है . .पलायन का मुद्दा इसलिए बड़ा है कि इस पहाड़ी राज्य का अर्थ ही गाँवों से जुड़ा है .पहाड़ के इतिहास, समाज और संस्कृति को देखें तो इसमें शहर नहीं हैं केवल गाँव हैं . और जो शहर .बने भी हैं तो वह अंग्रेज़ों ने बनाए और बसाए हैं .पुरातन क़स्बों से शहर की ओर संक्रमण की प्रक्रिया में जो हैं भी तो उनमें भी गाँव पूरी तरह झलकते और बसते हैं . ज़ाहिर है अगर गाँव आबाद नहीं रहते हैं तो पहाड़ कहाँ से बचते हैं .और अगर खेती और किसान सुरक्षित नहीं हैं तो फिर उतराखंड कहाँ से और कैसे सुरक्षित है ?
पहाड़ में खेती का मिश्रित स्वरूप है . यहाँ सभी क़िस्म की फ़सलें बोयी और उगायी जाती हैं .अपनी विशिष्ट भोगोलिक बनावट के कारण यहाँ खेती के अलग अलग रूप और क़िस्में मौजूद हैं . प्रकृति ने तो पहाड़ को एक सा बनाया और एक रूप किया है . मगर राजनैतिक विभाजन ने इस पहाड़ी प्रदेश को मैदान और पहाड़ में बाँट दिया है . इसके कारण कृषि , बाग़वानी और पशुपालन के अलग अलग पैटर्न देखने को मिलते हैं. हरितक्रांति ने जहाँ राज्य में तराई की कृषि का मिज़ाज बदला वहीं पहाड़ पर घाटी वाले इलाक़ों को छोड़कर इसका प्रभाव आंशिक ही रहा .
होना तो यह चाहिए था कि राज्य अपने सबसे पुराने और भरोसेमंद आर्थिक संसाधन के आधुनिकीकरण और विकल्प पर विचार करता. खेती को केंद्रबिंदु मानकर योजनाएँ बनतीं और परंपरागत उत्पादन और उत्पादित किए जा रहे जींस के बेहतर विकल्पों पर विमर्श होता .
सरकार चाहती तो परम्परागत कृषि के आधुनिकीकरण
के लिए विशेषज्ञों की समिति बना सकती थी पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ . इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि लोगों ने कृषि , बाग़वानी और पशुपालन के काम को मौजूदा परिस्थितियों में अलाभकारी मानकर छोड़ना शुरू कर दिया और आजीविका की तलाश में पहाड़ से बाहर की तरफ़ जाना शुरू कर दिया .यह सही है कि पहाड़ से हो रहे पलायन का सबसे बड़ा कारण निरन्तर आजीविका के अवसरों का समाप्त होते जाना ही है . शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्या इसके बाद बड़ा कारण बनती है .
इस समय जब कि भाजपा लोक सभा चुनावों को फ़तह करने के लिहाज़ से अपने धार्मिक ऐजेंडे को कसने में जुटी है उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस अपना एजेण्डा सेट करना तो दूर अपने कुँनबे को ही एक जुट नहीं कर पा रही है . मुख्यमंत्री धामी के मज़ारों के ध्व्स्तीकरण से जुड़े बयानों का कांग्रेस के विधायकों और नेताओं का समर्थन किसी भी लिहाज़ से कांग्रेस के लिए तो अच्छा नहीं ही कहा जा सकता . यह भले ही भाजपा में शामिल होने की कोशिश की भूमिका नहीं हो मगर ऐसे बयान कांग्रेस को कमज़ोर करते हैं और बचे खुचे कार्यकर्ताओं के मनोबल को तोड़ते हैं . राज्य में इस समय भर्ती परीक्षाओं में घोटालों के कारण निराशा फैली हुई है . युवाओं में हालात को लेकर ऐंज़ाइयटी और डिप्रेशन के लक्षण बहुतायत में देखे जा रहे हैं . ऐसे में यह ज़रूरी था कि प्रदेश के युवाओं के सामने बेहतर और सुरक्षित भविष्य का एजेण्डा सेट किया जाता और इस मुद्दे पर सोशलमीडिया की चाहर दीवारी से बाहर निकल कर युवाओं के मुद्दों रोज़गार के अधिकार पर संघर्ष किया जाता पर हालिया प्रदर्शनों और कार्य ब्यवहार से तो ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा है .कि युवा विपक्षी दलों से जुड़ने में कोई रुचि ज़ाहिर करें .
गर्मियाँ आ गयी हैं और ज़ाहिर है कि पीने के पानी का संकट सामने होगा . इस साल जाड़ों मैं बारिस भी काफ़ी कम हुई है और पानी का लेबल भी चिंताजनक स्थिति तक नीचे चला गया है . इसका मतलब तो यह हुआ कि पानी को लेकर पूरे राज्य में ख़ासकर पहाड़ी जिलों में हाहाकार मच सकता है और लोग स्वतःस्फूर्त आन्दोलन की राह पकड़ सकते हैं . ग्रामीण उतराखंड में पीने के पानी के सीमित विकल्प हैं और इन विकल्पों को बढ़ाए जाने की ज़रूरत हमेशा महसूस की जाती रही है .उतराखंड राज्य के तेइस सालों के सफ़र में पीने के पानी की सहज उपलब्धता के बिकल्पों पर बहुत कम काम हुआ है . क्या गाँव क्या शहर पीने का पानी का संकट हर साल गरमियों में गर्मी बढ़ा देता है . कई कई जगह तो जाड़ों में भी पानी का संकट जी का जंजाल बना रहता है . नदियों के प्रदेश में खेती का सिंचाई के साधनों के लिए मोहताज होते जाना यह दर्शाता है कि उतराखंड राज्य में खेती को रोज़गार प्राप्त करने का प्रमुख श्रोत और क्षेत्र न तो बनाया गया और न ही इसके भारी महत्व को समझा गया है . राज्य की तराई में धान और गन्ना प्रमुख फ़सल है .इन दोनों ही फ़सलों को पानी की सबसे अधिक आवश्यकता होती है. धान और गन्ना पानी में ही अच्छे परिणाम देते हैं लेकिन नहरों के विकास का काम राज्य में हाशिए पर है और पुरानी नहरों के रखरखाव के लिए भी पर्याप्त बजट उपलब्ध नहीं है . लेकिन तराई और भाबर के किसानों ने ट्यूबबैल के रूप में पानी की समस्या का विकल्प ढूँढ लिया है . तराई भाबर में रात दिन ट्यूबवेल चलते हैं और किसान पानी से खेतों को भर लेते हैं .हालाँकि राज्य में बिजली महँगी है जिसके कारण धान और गन्ने के उत्पादन पर लागत बढ़ जा रही है और किसान को कोई विशेष लाभ नहीं हो रहा है .
क़ुदरत ने पहाड़ों को अनेक मुश्किलों के साथ साथ कई अन्य विशेषताओं से नवाज़ा भी है . मसलन धान की खेती को बहुत पानी की आवश्यकता पड़ती है . एक किलो चावल पैदा करने के लिए ढाई हज़ार लीटर पानी की ज़रूरत होती है. लेकिन पहाड़ों में सिंचाई के साधनों की भारी कमी के बावजूद किसान अपनी ज़रूरत का धान पैदा करते है और उन जिंसों को भी उत्पादित करते हैं जिनके लिए पानी की ज़रूरत पड़ती है .राज्य के पहाड़ी हिस्से में किसान के पास सिंचाई के लिए तराई की तरह ट्यूबवेल का विकल्प नहीं है . पहाड़ी किसान सिंचाई के लिए वारिस पर निर्भर है और बाग़वानी के लिए भी उसे क़ुदरत की मेहरबानियों की ज़रूरत पड़ती है .इस परिस्थिति को बदला जाना चाहिए था या कि बदला जा सकता था पर यह हो नहीं सका या किया नहीं गया कि नदियों के जल को ऊँचे पहाड़ों पर चढ़ा कर पीने के पानी के साथ साथ सिंचाई के काम में भी लाया जा सके .और पुरानी नहरों की सेहत को दुरुस्त किया जाता और नयी नहरों का जाल तैयार होता . पर यह क्षेत्र सरकार की चिंता में शामिल नहीं है .फ़िलहाल तो पहाड़ की खेती , बाग़वानी ,पशुपालन और किसान गहरे संकट में है और आजीविका के विकल्प सिमट रहे हैं जिसके कारण पलायन कैंसर की तरह हो गया है . हालाँकि यह संकट पूरे हिमालियन बेल्ट और एक तरह से पूरे देश का है , लेकिन अभी तो इस पर काम और चर्चा होने के बीच में मज़ार आ गयी हैं इस लिए बेहतरी के लिए कोई अवसर और आसार नहीं हैं .

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लेखक एडवोकेट एवं सोशल एक्टिविस्ट हैं
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