यशपाल की घर वापसी,कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक,भाजपा के लिए चिंता का सबब

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दिनेश तिवारी पूर्व उपाध्यक्ष विधि आयोग

यह कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक है . ज़रूरत के समय मौक़े पर मारा गया छक्का ! यह भी कह सकते हैं विपक्षी टीम का सबसे महत्वपूर्ण विकेट निर्णायक घड़ी में चटका कर खेल का रूख बदल देना ! जो भी हो अपने पुराने दिग्गज खिलाड़ी यशपाल आर्य को फिर से अपनी टीम में वापस लाने में कामयाब कांग्रेस के लिए यह घटना संजीवनी मिलने जैसी है . लगातार निर्दलीय विधायकों और अपने ख़ुद के विधायकों के भाजपा में जाने से परेशान कांग्रेस के लिए यशपाल का भाजपा छोड़ कर कांग्रेस में वापस आना मरते हुए को अचानक प्राणवायु मिलने सरीखा है . ज़ाहिर है यह कांग्रेस की ओर से २०२२ के विधानसभा चुनावों को फ़तह करने की दिशा में बड़ा क़दम है . और भाजपा के लिए चिंता का बड़ा सबब कि उसकी सोशल इंजिनीयरिंग की चेन से दलित कड़ियाँ लगातार टूट रही हैं और उसका नेतृत्व उन्हें सम्भालने में विफल हो रहा है . यशपाल की घरवापसी कांग्रेस की सफलता कम भाजपा की विफलता ज़्यादा है . वह इसलिए कि यशपाल आर्य न केवल बड़ा दलित चेहरा हैं बल्कि समावेशी राजनीति का भी सबसे बड़ा चेहरा हैं . यह भाजपा की बड़ी विफलता इसलिए भी है कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के गृह जनपद और केंद्रीय मंत्री अजय भट्ट की संसदीय सीट से ही कांग्रेस बड़ा शिकार करने में कामयाब रही है . यह ज़िक्र ज़रूरी है कि २०१६ में अजय भट्ट ही वह शख़्स थे जिनकी कोशिशों से यशपाल भाजपा के रथ पर सवार हुए थे . इसलिए यह मुख्यमंत्री धामी और केंद्रीय मंत्री अजय भट्ट की निजी विफलता भी है .
तो क्या यशपाल आर्य प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री होंगे ? या यह केवल दलित समुदाय की गोलबंदी की कोशिश है ? हालाँकि यह आसान तो बिल्कुल भी नहीं है पर इससे एक नयी बहस तो शुरू हो ही गयी है .
२०१४ के बाद भारतीय राजनीति में जाति एक बार फिर राजनीतिक ध्रुविकरण का आधार बन रही है और दलित भारतीय राजनीति की नई धुरी बन के उभरा है .२०१४ के चुनाव को अपवाद स्वरूप लिया और देखा जा सकता है जिसने जाति के समीकरण को तोड़ा और विकास और राष्ट्रवाद की केमिस्ट्री से नया रसायन तैयार किया
. लेकिन विकास के मुद्दे के ग्राउंड पर नहीं पहुँचने से यह माडल लगभग फ़ेल है इसलिए अब फिर से राजनीति अपने लिये नया स्पेस देख रही है . यह सही है कि दलित समुदायों का भाजपा से व्यापक मोहभंग जारी है और भाजपा दलित समुदाय के समर्थन को खो रही है . २०११ की जनगड़ना ने हमें बताया कि देश में दलितों की आवादी २०.१४ करोड़ है. अगर इसमें दो करोड़ दलित ईसाइयों और दस करोड़ दलित मुसलमानों को भी जोड़ दें तो भारत में दलितों की कुल आवादी ३२ करोड़ हो जाती है . अब भारत की एक चौथाई आबादी के समर्थन या विरोध से लोक सभा हो या विधान सभा सीटों का गणित बन या बिगड़ तो जाता ही है . २०१४ और २०१९ के लोकसभा चुनावों में उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड की सभी आरक्षित सीट भाजपा के खाते में गयीं. और यही नतीजा विधान सभाओं में भी रहा . न केवल आरक्षित सीट बल्कि सामान्य सीट भी भाजपा के हिस्से में ही गयीं . लेकिन हुआ क्या ? आख़िर भाजपा से दलितों के दूर होते जाने का कारण क्या है ?
भारत में हर चुनाव में जाति एक फेक्टर रहा है . समाज में जातियों की संख्या देखकर ही राजनैतिक पार्टियाँ टिकट देती रही हैं . इस लिए जाति भारतीय समाज और लोक तंत्र का बड़ा आधार भी है . लेकिन दलित इसका अपवाद है . वह जाति के आधार पर इसलिए संगठित होता है ताकि जाति टूटे . यह बुनियादी फ़र्क़ है कि वह जातियों के विनाश में अपने को सुरक्षित पाता है . यह इसलिए भी कि जाति की सामाजिक संरचना दलित के ख़िलाफ़ है . २०१४ में विकास की समावेशी धारणा से प्रभावित होकर भाजपा से जुड़ने वाला दलित समुदाय २०१९ के आते आते भाजपा से दूर होने लगता है . कारण यह है कि देश में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा की घटनाएँ बढ़ रही हैं . यह तथ्य है कि दलितों के उत्पीड़न की घटनाएँ उन्हीं राज्यों में अधिक हैं ज़हाँ भाजपा का राज है . और दलित बुद्धिजीवियों का यह भी आरोप है कि केंद्र सरकार भी दलितों को दूसरे दर्जे का नागरिक मानती है . यह सही है कि एक उत्पीड़ित जाति और समुदाय के रूप में दलित चेतना नए दौर में प्रवेश कर गयी है इस लिए अपने प्रति होने वाले ब्यवहार को दलित युवा बिल्कुल अलग नज़रिए से देखता है .
हैदराबाद केंद्रीय विश्वबिध्यालय के एक छात्र रोहित बेमुला की आत्महत्या का मामला , मद्रास आई॰आई॰टी , हैदराबाद विश्वबिध्यालय, जे एन यू के भीतर दलित छात्रों व भाजपा की छात्र शाखा के बीच टकराव आम्बेडकरवादियों और भाजपा के बीच खुला तनाव , गुजरात , यूपी जैसे राज्यों में दलित युवाओं की गो रक्षा के नाम पर हत्या आदि कई ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से दलित भाजपा से अलग हो रहा है . अभी हाल ही में इटी मैगज़ीन और बिगडेटा फ़र्म मेविनमैगनेत के मिले जुले सर्वे में मोदी सरकार दलितों के मामले में सबसे अधिक नुक़सान में बतायी गयी है . इस सर्वे के मुताबिक़ दलितों में मोदी सरकार के प्रति सकारात्मकता शून्य और नकारात्मकता आठ फ़ीसदी है . इसके अलावा तराई में किसान आंदोलन की व्यापकता , खीरी लखीमपुर में किसानों की निर्मम हत्या से उपजी जाट सिखों और जाट किसानों की गहरी नाराज़गी ,बेलगाम बेकारी , महँगाई कई अन्य ऐसे कारण हैं जो भाजपा की २०२२ की सम्भावना को बहुत कम कर रहे हैं .
भारत की अर्थब्यवस्था कृषि पर आधारित है और कृषि सेक्टर में कोई बुनियादी बदलाव हुआ नहीं है . इसलिए इसका स्वरूप अभी भी पारम्परिक ही है .इस पिछड़ी हुई कृषि ब्यवस्था में दुधारू पशुओं और पशुओं के चर्म से बने उत्पादों की माँग और ज़रूरत बनी हुई है . चूँकि इस माँग की आपूर्ति से दलित समुदाय जुड़ा हुआ है तो ग्रामीण भारत की कृषि ब्यवस्था में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है . भाजपा शासित राज्यों और केंद्र सरकार की नीतियों में गौ हत्या पर लगे सख़्त प्रतिबंधों से इस पेशे से जुड़े आरक्षित समुदायों की रोज़ी रोटी पर बुरा असर पड़ा हुआ है . देश के कई राज्यों में हिंसक टकराव में दलित गौ रक्षक सेनाओं के शिकार हुए हैं .ज़ाहिर है इन घटनाओं और राजनैतिक सोच , ब्यवहार से दलित भाजपा से नाराज़ है . शायद दलितों की भाजपा से गहरी नाराज़गी , किसानों में गहराता बिक्षोभ और भाजपा के ख़िलाफ़ बढ़ रहा विरोध का दायरा कुछ ऐसे कारण हैं जिसने यशपाल आर्य को कांग्रेस में लौटने के लिए विवश किया है . वैसे भी यशपाल राजनैतिक मौसम विज्ञानी हैं , तूफ़ान के आने से पहले सुरक्षित घर पहुँचना जानते हैं।