नारायण द्वौ : हमारी संस्कृति का अनमोल धरोहर (प्राचीन विष्णु मंदिर)

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डॉ विनीता खाती

मंदिर हमारी आस्था का केंद्र है और हमारे पूर्वजों की दी गई एक विरासत भी है ।इससे हमें ज्ञात होता है कि हमारी संस्कृति कितनी समृद्ध है। यहां पर पाई जाने वाली मूर्तियां तथा स्थापत्य कला, हमें इस बात का आभास दिलाती है कि हमारे पूर्वजों ने कितनी खूबसूरत तरीके से इनका निर्माण किया है,जिससे 1000 साल बाद भी ,आज तक ये सुंदर दिखाई देती हैं। मंदिरों को बनाने का ढंग कितना अद्भुत होगा,जो की इतने सारे प्राकृतिक आपदाओं को सहन कर आज भी सुरक्षित हैं।
गुप्त काल की वास्तु एवं शिल्प कला एवं स्थापत्य कला के अवशेष आज भी उत्तर भारत के कई स्थानों पर पाए गए हैं ।
उत्तराखंड में कत्यूरी काल तथा चंद राजाओं के काल में मूर्ति कला तथा स्थापत्य कला को विशेष संरक्षण दिया गया ।इस काल की मूर्ति कला, स्थापत्य कला, शिल्प कला, गुप्त काल की शिल्प कला, मूर्तिकला तथा स्थापत्य कला से बहुत अधिक समानता रखती है।
इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण उत्तराखंड में स्थित प्राचीन मंदिरों और मूर्तियां को देखकर मिलता है। ऐसा ही एक मंदिर पिथौरागढ़ जिले के सूदूर तहसील गणाईगंगोली के एक छोटे से गांव बनकोट में स्थित है। इस प्राचीन मंदिर को स्थानीय ग्रामीण लोग नारायण द्वौ के नाम से जानते हैं ।
यह मंदिर मूर्ति कला तथा स्थापत्य कला का एक छोटा उदाहरण है। मंदिर की मुख्य विशेषता यह है कि यह भगवान विष्णु की 10 अवतारों की मूर्तियों का एक समूह है,जिसमें भगवान नारायण की विभिन्न अवतारों को छोटे छोटे मंदिर में स्थापित किया है और मुख्य मंदिर में भगवान विष्णु की अनंतशायी मूर्ति को गर्भगृह में विराजमान किया गया है। मंदिर देखने में बहुत छोटा है लेकिन वहां पर विराजमान मूर्तियों को देखकर लगता है कि यहां मूर्तियां गुप्त काल के समान ही काली बलुवी मिट्टी से बनी हैं। भगवान विष्णु के मोहिनी अवतार , चतुर्भुजी विष्णु, वामन अवतार,वराह अवतार , शेषनाग में विश्राम करते हुए नारायण की मूर्तियां छोटे-छोटे मंदिरों में स्थापित मूर्ति कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।सभी मूर्तियां बहुत सुंदर हैं। रखरखाव के अभाव में बहुत सी मूर्तियां क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। मुख्य द्वार पर शायद व्राह्मी लिपि से कुछ शब्दों को उकेरा गया है। जो समझ में नहीं आता। जिसे पुरातत्व विभाग अल्मोड़ा में दिखाये जाने पर ज्ञात हुआ।
मूर्ति कला तथा स्थापत्य कला को देखकर लगता है कि यह मंदिर गुप्त काल में निर्मित देवगढ़ ललितपुर (झांसी )के दशा अवतार मंदिर से बहुत अधिक समानता रखता है । दशावतार मंदिर विष्णु के 10 अवतार इकलौता मंदिर है इस मंदिर का निर्माण ४वी से ६ठी शताब्दी के बीच किया गया था। यहां पर भगवान विष्णु से 10 अवतारों को एक ही मंदिर में स्थापित गया है इस कारण यह मंदिर दशावतार नाम से प्रसिद्ध है, और नागर शैली बहुत अच्छा उत्कृष्ट उदाहरण है। बड़े-बड़े चबूतरों के निर्माण पर बनाया गया यह छोटे -छोटे मंदिरों का सामूहिक मंदिर, पंचायत शैली के नाम से भी जाना जाता है ।
उत्तराखंड में भी इसी तरह मंदिरों का निर्माण किया जाता है। दशावतार मंदिर के समान यहां की मूर्तियां और स्थापत्य कला कई जगहों पर देखीं गई हैं। एक छोटे से गांव में इस प्रकार का मंदिर होना बहुत बड़ी बात है यहां पर भी अनंतशायी विष्णु की मूर्ति को उसी प्रकार शेषनाग में विश्राम करते हुए दिखाया गया है और मूर्ति उतनी ही सुंदरता से बनी है जितनी की दशावतार मंदिर में बनी हुई है ।आठवीं से नवी शताब्दी में बना यह मंदिर आज मंदिर स्थानीय लोगों का आस्था का केंद है ।
उत्तराखंड के अन्य मंदिरों में भी पंचायत शैली ही अधिकतर देखी गई है। इस शैली में निर्मित मंदिर में मुख्य मंदिर के चारों ओर छोटे छोटे मंदिरों का समूह होता है। जागेश्वर मंदिर में भी इसी शैली का उदाहरण है। द्वाराहाट तथा जागेश्वर के मंदिरों में बड़ी-बड़ी पत्थर शिलाओं का प्रयोग किया गया है । छोटे-छोटे मंदिर समूह,जिसमें गर्भ गृह ,चतुर्कोणीय शिखर, चबूतरों का पाया जाना पंचायत शैली तथा नागर शैली को दर्शाते हैं।

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कत्यूरियों का इतिहास गौरवशाली रहा है कई इतिहासकार कत्यूरी शासनकाल को केवल कुमाऊं गढ़वाल तक सीमित कर देते हैं जिससे विशाल कत्यूरी शासन और इनके राज्यों की सीमाओं का ज्ञान नहीं हो पाता। बोधगया से प्राप्त अशोक चल्ल का अभिलेख कत्यूरी राज्य की सीमाओं पर प्रकाश डालते हैं ।उनका शासन कुमाऊं, गढ़वाल, नेपाल, रोहिलखंड, पश्चिमी तिब्बत से संलग्न भू-भाग थे।
कत्यूरी शासनकाल में कला कौशल के क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई। इस समय कई अन्य मंदिरों मूर्तियों तथा उत्कृष्ट शिल्प वाले भवनों का निर्माण हुआ। इनका शासनकाल कुमाऊं में छठी से ग्यारवी सदी तक माना जाता है ।
उत्तराखंड में गुप्त कालीन मूर्ति कला की अन्य उदाहरण भी दिखाई देते हैं जिन्हें हम यहां पर व्यवस्थित मंदिरों की मूर्तियों में आज भी देख सकते हैं। कलाओं में समानता, इस बात पर ध्यान आकर्षित करती है कि उस काल में यहां की शासकों का गुप्त कालीन शासकों के साथ मैत्री सम्बन्ध रहे होंगे, जिस कारण उनकी कलाओं का आपस में आदान प्रदान हुआं। हमारे मंदिर और मूर्तियां हमारी अनमोल धरोहर रहें हैं,जो हमारी संस्कृति को सुरक्षित रख एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित करती हैं इन्हें उचित संरक्षण एवं सुरक्षा देकर जीवन्त रखना हम सब की जिम्मेदारी हैं ।
आज भी कहीं मंदिरों के मूर्तियां क्षतिग्रस्त हो चुकी है या चोरी हो चुकी हैं, इनका रखरखाव अत्यावश्यक है। उम्मीद करती हूं कि मेरे इस प्रयास से भावी पीढ़ी तथा अन्य लोग भी अपने गौरवशाली इतिहास का कुछ अंश समझने में जानने में सहायक होंगे या मेरा छोटा सा प्रयास सपने इतिहास को जानने में सहायता करेगा।
आज शिक्षार्थियों के लिए, इन्हें जानना, समझना बहुत जरूरी है। हमारे विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों को भी हमारी प्राचीन संस्कृति और प्राचीन कला से परिचय कराना अति आवश्यक है, क्योंकि मंदिर और उनमें विद्यमान कलाएं हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग होते हैं।
हमारी संस्कृति भी शिक्षा का एक अंग है, बिना संस्कृति ज्ञान, सभ्यता के मानव जीवन निष्प्राण है।
उम्मीद करती हूं एक बार ऐसे ही प्राचीन मंदिरों के दर्शन हेतु अवश्य आप लोग पधारेंगे और परमात्मा का आशीर्वाद लेंगे ।
धन्यवाद।
(डॉ० विनीता खाती शिक्षिका हैं)

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