अब कलम से छलक रहा कहीं दर्द.. कहीं गुस्सा।..अबकी बार फिर मारी गईं है अंकिता !

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अबकी बार फिर मारी गईं है अंकिता !
कत्ल होती बेटियों की फेहरिस्त में जुड़ गया है एक और नाम
अंकिता !
, अंकिता !
रोज ही तो मरती है या
मार दी जाती है
कभी पहाड़ों में
कभी मैदानों में
होने से पहले ही
मिटा दी जाती है अंकिता !
मुश्किल से नसीब होती है उसे
मां की कोख
मां की कोख में किलकारियां मारने को तरसती रही है अंकिता .
कभी गर्भ में , उससे भी पहले विचार में

फिर संस्कार में और फिर संसार में
मार दी जाती है अंकिता !
अब जब कि उड़नखटोले
उड़ान भर रहे हैं इक्कीसवीं सदी की ओर
और आगाज हो रहा है महिलाओं की सदी का
नाम पर अस्मिताओं के महिलाओं की
हो रहे हैं बड़े बड़े आयोजन संवाद , बहस

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तब अफसोस कि मारी जा रही है अंकिता !

अब फिर अंकिता का कत्ल चर्चाओं में है टेलीविजन , अखबार की सुर्खियों में

एक पहाड़ी लड़की का कत्ल लीड स्टोरी है पर यह तो होता है हर बार होता है नाम अलग अलग हैं या कि हो सकते हैं लेकिन रूप? वह तो एक ही है न ! कहीं निर्भया तो कहीं अंकिता

कहीं बस में तो कही कार में नभ , जल, थल कहीं भी

और अब नहर में

कहीं कुछ तो कहीं कुछ कहीं तंदूर में तो कहीं जिंदा जलती हुई अंकिता!! अंकिता ! जब भी कोशिश करती है पहाड़ से उतरने की और तलाश करती है जिंदगी के लिए मैदान

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बांध दी जाती है उसकी रफ्तार काट दिए जाते हैं उसके पंख.

कहीं खाप तो कहीं जाति तो कहीं मजहब तैयार और तत्पर हैं उसे और उसकी दुनियां को डसने के लिए ।

पहाड़ों पर भी कहां और कब सुरक्षित है अंकिता?

उसकी उड़ान पर यहां भी पहरे हैं और वहां भी

उसका अपनी तरह से अपनी जिंदगी जीने का विचार एक स्वप्न ही है अभी भी ।

अब जो उसे कत्ल कर रहे हैं मैदानों में

पहाड़ों पर भी तो बांध ही रहे हैं ।

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अब, पहाड़ों पर भी कहां निर्वाध बहती हैं नदियां!

अब की बार फिर कत्ल हुई है अंकिता !

अपने उज्जवल सपनों के साथ।

एक नहर में मार दी गई अंकिता!

ऐसा होता है और अक्सर होता है।

जब भी इंकार करती है अंकिता और कराती है बोध खुद का,

अपनी अस्मिता का/अपनी चाहत का दंडित होती है या कि पाती है मृत्यु दंड।

हो सकता है , बिल्कुल हो सकता है कि वह देह से जीवित हो ,

पर दिमाग! मारा जा सकता है उसे किश्तों में और फिर धकेला जा सकता है उफनती नहर में

सूखी और निर्जीव गठरी की तरह


दिनेश तिवारी
रचनाकार पेशे से एडवोकेट और सामाजिक आंदोलनकारी‌ हैं।