भंगजीरा उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था के लिए वरदान साबित हो सकता है
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में भंगजीर या भंगजीरा का काफी महत्व होता है.इसका वनस्पतिक नाम परिला फ्रूटीसेंस है, जो लमिएसिए से संबधित है। यह एक मीटर तक का लम्बा वार्षिक प्रजाति का पौधा है जो हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों विशेषकर उत्तराखंड की पहाड़ियों में 700 से 1800 मीटर की ऊंचाई वाले स्थानों पर पाया जाता है।
गढ़वाल में इसे भंगजीर व कुमाऊं में झुटेला के नाम से जाना जाता है। इसके बीज चावल के साथ बुखणा (दुफारि) व भंगजीर की चटनी भी पारंपरिक रूप से उपयोग में आते हैं । यह पूर्वी एशिया में भारत, चीन, जापान एवं कोरिया तक के पर्वतीय क्षेत्रों में भी पाया जाता है। पहाड़ो में इसे लोग कई बिमारियों में पारम्परिक ओषधि के रूप में उपयोग करते हैं.भंगजीर का औषधीय महत्व भी काफी अधिक है और हाल में ही वैज्ञानिकों ने शोध कर इसे कॉड लीवर आयल के विकल्प के रूप में साबित किया है.इसमें ओमेगा-3 व ओमेगा-6 काफी अधिक मात्रा में पाया जाता है जो की कॉड लीवर ऑयल के लिए एक बेहतरीन विकल्प है. साथ ही इसके बीजों में 30 से 40 % तक तेल मौजूद रहता है,उनका कहना है की सरकार और दवा कंपनियों को जल्द से जल्द इसमें पहल करनी की आवश्यकता है ताकि इसका उत्पादन,अधिक से अधिक मात्रा में किया जाये और लोगों को भी रोजगार मिल सके,साथ ही यह मांशाहारी न खाने वालों के लिए भी शुद्ध व शाकाहरी ओषधि साबित होगी.कॉड लीवर आयल से हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, कैंसर,कोलेस्ट्रॉल, डायबिटीज को कम करने के अलावा उच्च रक्तचाप, हृदय रोगों, ओस्टियोआर्थराइटिस, मानसिक तनाव, ग्लूकोमा व ओटाइटिस मीडिया जैसी बीमारियों के इलाज में होता है। यह मृत कोशिकाओं को हटाने के साथ-साथ कैंसर एवं एलर्जी में भी यह बेहद लाभकारी माना जाता है।वैज्ञानिकों का मानना है की कॉड लीवर ऑयल की जगह भंगजीर से बना तेल काफी सुरक्षित है और इस से वसीय तेलों से होने वाले हानिकारक प्रभाव भी काफी कम हो जायेंगे। विश्वभर में इसके इसेन्सियल ऑयल की वृहद मांग है तथा इसका बहुतायत मात्रा में उत्पादन किया जाता है। भंगजीर में 0.3 से 1.3% इसेन्सियल ऑयल पाया जाता है, जिसमें प्रमुख रूप से पेरिएल्डिहाइड 74%, लिमोनीन- 13%, बीटा-केरियोफाइलीन- 4%, लीलालून-3%, बेंजल्डिहाइड- 2% तथा सेबिनीन, बीटा-पीनीन, टर्पिनोलीन, पेरिलाइल एल्कोहॉल आदि 1% तक की मात्रा में पाये जाते है। भंगजीर में पाये जाने वाले मुख्य अवयव पेरिलाएल्डिहाइड, पेरिलार्टीन को बनाने का मुख्य अव्यव है जो कि सर्करा से 2000 गुना अधिक मीठा होता है तथा तम्बाकू आदि में प्रयोग किया जाता है। भंगजीर के बीज में लिपिड की अत्यधिक मात्रा लगभग 38-45 प्रतिशत तक पायी जाती है तथा ओमेगा-3, 54-64 प्रतिशत एवं ओमेगा-6, 14 प्रतिशत तक की मात्रा में पाया जाता है। इसके अलावा भंगजीर में कैलोरी 630 किलो कैलोरी, प्रोटीन- 18.5 ग्रा0, वसा- 52 ग्रा0, कार्बोहाइड्रेटस- 22.8 प्रतिशत, कैल्शियम- 249.9 मिग्रा0, मैग्नीशियम-261.7 मिग्रा0, जिंक – 4.22 मिग्रा0 तथा कॉपर-0.20 मिग्रा की मात्रा प्रति 100 ग्राम तक पायी जाती है। इसके तेल में रोगाणुरोधी गुण की विविधता की वजह से पौधे में एक विशिष्ट गंध होती है जो आवश्यक तेल घटक इसके पोषण को प्रभावित करते हैं और औषधीय गुणों से भरते हैं। इसका तेल सीमित जांच का विषय है, जो गुलाब के एक समृद्ध स्रोत के रूप में सूचित किया जाता है, इससे स्वादिष्ट मसाला और इत्र भी बनाया जाता हैै।
उत्तराखंड के अलग अलग पहाड़ी इलाकों में भंगजीर खेती की बात समय-समय पर उठाई जाती रही है। अगर ऐसा किया जाता है तो पर्यावरण संरक्षण के साथ साथ राज्य की आर्थिकी व स्वरोजगार की दिशा में ये बेहतर कदम होगा। ये एक अल्पविकसित फसल है। जो एक वार्षिक प्रजाति का पौधा है और भारत के पहाड़ी राज्यों में व्यापक रूप से मिलता है। इनकी पत्तियां व्यापक रूप से स्वाद, भोजन के लिए उपयोग की जाती हैं। ये पारंपरिक हर्बल दवाएं, सर्दी और खांसी के लिए और पाचन को बढ़ावा देने के लिए पौधा अपने पौष्टिक मूल्य के कारण महत्वपूर्ण है। उत्तराखंड में इसे चटनी के रूप में प्रयोग किया जाता है, जो अनजाने में अपने साथ कई औषधीय गुणों से भरपूर है। भंगजीर तिलहन प्रजाति में आती है, जो सिर्फ पहाड़ी क्षेत्रों में ही पैदा होती है। इसकी चटनी भी भूनकर बनाई जाती है। कुमाऊं में इसे भंगीरा कहते हैं। भंगजीर काली भी होती है। भंगजीर आसानी से भुन जाती है, इसलिए इससे जलने से बचाना चाहिए। यह पीसने में भी आसन होती है और देखने में सफेद यानी नारियल की चटनी की तरह लगती है। हरा धनिया, पुदीना या अन्य पत्ते डालने पर चटनी का कलर अर्धसफेद हो जाता है। स्वाद एवं गुणवत्ता में इसका जवाब नहीं। उत्पादों को व्यावसायिक स्तर पर बाजार में उतारा तो स्थानीय लोगों के लिए रोजगार पैदा करने में मदद मिलेगी. यह भारत के लोगों के लिए राज्य की प्राकृतिक बहुतायत, संस्कृति और परंपरा का एक टुकड़ा भी पूरा करेगा. लेखक द्वारा शोध के अनुसार, वैज्ञानिक शोध पत्र वर्ष 2014, 2019, जर्नल पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।