सियासतदानों की कमजोर इच्छाशक्ति से नहीं बन पा रहा रानीखेत जिला

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उत्तराखंड राज्य में अविभाजित उत्तरप्रदेश राज्य के समय से ही जिलों के पुनर्गठन की माँग उठती रही है राज्य के पर्वतीय भू भाग में जिलों के पुनर्गठन का मुद्दा एक लोकप्रिय विषय भी रहा है विशाल और जटिल भू संरचना के कारण के अलावा यातायात की सुविधा का अभाव सम्पर्क मार्गों की कमी ख़राब आर्थिक स्थिति और संचार माध्यमों की कमज़ोर उपस्थिति जैसे कई अनेक कारणों ने जिलों के पुनर्गठन की ज़रूरत को बहस का मुद्दा बनाया है।यह सही है कि छोटी प्रशासनिक इकाइयों के गठन से लोगों का मुख्यालयों पर आना जाना सरल और आसान तो हो ही जाता है लेकिन प्रशासन के लिये भी लोगों तक पहुँचना सरल हो जाता है भारत में जिले को प्रशासन का मुख्य केंद्र माना गया है और जिलधिकारी राज्य और केंद्र दोनों का प्रतिनिधि अधिकारी भी है राज्य सरकार सीधे जिले के मुखिया ज़िलाधिकारी से जुड़ी रहती है और हर जिले को अपनी योजनाओं को अलग से रखने और अलग से बजट माँगने की स्वतंत्रता भी हासिल है जिस तरह से अलग राज्य बन जाने से सम्बंधित राज्य का अपना अलग बजट हो जाता है उसी तरह हर जिले का भी अपना अलग बजट अपनी अलग ज़िला पंचायत अपना अलग ज़िला ऐवम सत्र न्यायालय और तमाम जनपद स्तरीय मुख्यालय अस्तित्व में आ जाते है इस लिये ज़िला विकास की और प्लानिंग की सबसे बड़ी और बुनियादी इकाई है और इसी के इर्द गिर्द समकालीन विकास का पहिया और विकास की अवधारणा भी केंद्रित रहती हैबहरहाल अविभाजित उत्तरप्रदेश और अलग उतराखंड राज्य में जिलों के पुनर्गठन की माँग को लेकर अनेक आंदोलन हुए हैं और राजनैतिक दलों ने भी अपने घोषणा पत्रों में जिलों के पुनर्गठन का वायदा किया है लेकिन सच्चाई यह है कि १९९५ के वाद पहाड़ में किसी नये जिले का गठन नहीं हुआ है। वर्तमान में प्रदेश में १३ जिले हैं जिनमें ०३ जिले राज्य के मैदानी भू भाग से और शेष १० जिले राज्य के पर्वतीय हिस्से से हैं हालाँकि नैनीताल जिले का एक बड़ा भाग तराई भाबर से मिल कर बनता है इस लिहाज़ से नैनीताल ज़िला पहाड़ व मैदान का मिक्स्चर है। शायद यह जानना दिलचस्प हो या न हो पर ठीक रहेगा कि राज्य का देहरादून ज़िला १८१५, पौड़ी गढ़वाल १८३९ अलमोडा १८५४ और नैनीताल १८९० में ब्रिटिश भारत में गठित किये गये जबकि आज़ाद भारत में टिहरी गढ़वाल १९४८ पिथौरागढ़ , उत्तरकाशी , और चमोली जिले १९६० में और हरिद्वार ज़िला १९८८ में अस्तित्व में आया .वर्ष १९९५ में उत्तरप्रदेश में भाजपा और बसपा की गठबंधन सरकार बनी तब इस गठबंधन सरकार की मुखिया मायावती ने १९९५ के सितम्बर माह में अलमोडा़ आकर एक सभा में चार नये जिलों बागेश्वर ,चम्पावत , रुद्रप्रयाग और ऊधमसिंह नगर जिलो के गठन की घोषणा ही नहीं कि बल्कि उसी समय मुख्य सचिव को गजत नोटिफ़िकेशन जारी करने का आदेश भी दे दिया।जिलों के पुनर्गठन के इतिहास में जिलों के गठन की मायावती की यह कार्यवाही अदम्य प्रशासनिक क्षमता और समझ की भी गवाह है ।ब जहाँ तक रानीखेत जिले के गठन का सवाल है यह मसला बहुत पुराना है भारत की आज़ादी के बाद से ही देश के अनेक हिस्सों से अलग जिलों की उठती माँग से रानीखेत जिले की माँग भी गाहे बगाहे संलग्न होती रही है इतिहास के आइने से देखें तो १९६० के दौर में ही रानीखेत जिले की माँग शुरू हो गयी थी अलमोडा जिले को बाँट कर अलग रानीखेत जिले के गठन को राजनैतिक दलों जन संगठनो का समर्थन भी हासिल होना शुरू हो गया था १९८० और १९८५ के दौर में रानीखेत जिले के गठन की माँग पर छात्र संगठनों ने सड़कों पर उतरकर यह संकेत देना शुरू कर दिया था कि अब रानीखेत जिले की अनदेखी और उपेक्षा सम्भव नहीं है शायद जिले की माँग के इतिहास में यह दौर गम्भीर असर डालने वाला साबित भी हुआ और इसी का परिणाम रहा कि १९८७ में उत्तरप्रदेश राजस्व परिषद के अध्यक्ष बेंकेटरमणि की अध्यक्षता वाली समिति ने रानीखेत जिले की संस्तुति कर दी यह याद करना शायद अच्छा रहेगा कि यह दौर पूरे देश में छात्र युवाओं के सड़क पर उतरकर संघर्ष और प्रतिरोध का दौर रहा है। रानीखेत मे भी हमें छात्र युवाओं के नेतृत्व में जिले से लेकर अलग उतराखंड राज्य के निर्माण की गूँज सुनाई और दिखाई पड़ती है और इसका परिणाम यह होता है कि बेंकटरमणि समिति की सिफ़ारिशों के २ वर्ष बाद सन १९८९ में आठवाँ वित्त आयोग जिले के निर्माण को वित्तीय मंज़ूरी भी दे देता है पर इस सब के वावजूद रानीखेत जिले के निर्माण का रास्ता बंद ही रहा वर्ष १९९३-९४ में छात्र युवाओं की अगुवाई में फिर से आंदोलन की शुरुआत हो गयी जिसके कारण यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने मामले की गम्भीरता को समझते हुए जिले की घोषणा को तो टाल दिया पर रानीखेत में एक adm और एक सीओ की नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया लेकिन कुछ समय बाद ही adm को हटा कर पद को समाप्त भी कर दिया अलग राज्य बन जाने के बाद जिलों के पुनर्गठन की माँगने एक बार फिर ज़ोर पकड़ना शुरू कर दिया वर्ष २००४-०५ में रानीखेत की सड़कों पर जिले की माँग के समर्थन में लोगों का सैलाब उमड़ा और सरकार से गुहार लगायी कि जनता के ब्यापक हित में रानीखेत को ज़िला बनाया जाय इसका नतीजा यह निकला कि वर्ष२००७ में सरकार के निर्देश पर प्रशासन ने सरकार को जिले का विस्तृत प्रस्ताव भेजा इस प्रस्ताव में सम्भावित रानीखेत जिले में ०६ ब्लाक ०५ तहसीलें १३०९ राजस्व गाँव ५९ न्याय पंचायतें और १२० पटवारी क्षेत्र सम्मिलित किये गये इस प्रस्ताव के अनुसार प्रस्तावित जिले की जनसंख्या २००१ की जनगरना के अनुसार ३,४०,४५६ और एरिया १३७३५.७४० हेक्टेयर है लेकिन इस क़वायद का भी कोई परिणाम नहीं निकला और जनता के हाथ एक वार फिर निराशा ही आयी इतिहास में कई तारीख़ें आयीं लेकिन रानीखेत जिले की कहानी वहीं पर अटकी रही पर इस निराशा के बाद भी जनता का लड़ने भिड़ने का हौंसला कभी टूटा नहीं अलबत्ता संख्या कभी कम कभी ज़्यादा हुई हो पर लोग किसी न किसी रूप में आवाज़ उठाते और देते रहे २०१० में रानीखेत जिले की माँग एक बार फिर उठी और अबकि बार कमान सम्भाली अधिवक्ताओं ने . कई दिनों तक चले धरना प्रदर्शन का नतीजा यह रहा कि तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने वर्ष२०११ में रानीखेत सहित डीडीहाट कोटद्वार और यमनोत्री जिलों के गठन की घोषणा कर दी यह एक गम्भीर प्रयास था पर ग़ज़ट नोटिफ़िकेशन नहीं हो सकने के कारण रानीखेत ज़िले का स्वप्न फिर टूट गया २०१२ में प्रदेश की हुकूमत से भाजपा की विदाई के बाद प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी और उम्मीद जगी कि शायद प्रदेश की बहुगुणा सरकार जिलों के पुनर्गठन पर कोई फ़ैसला करे ऐसा कुछ करती हुई सरकार दिखी भी जब जिलों के पुनर्गठन के लिये एक समिति बनायी गयी और इस समिति ने नये जिलों का ख़ाका भी तैयार किया लेकिन हमेशा की तरह जनता को भारी निराशा ही हाथ लगी ।२०१७ में प्रदेश में भाजपा की वापसी हुई और इसके मुखिया तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत सरकार ने जिलों के पुनर्गठन को लेकर राजस्व परिषद के अध्यक्ष के नेतृत्व में एक आयोग गठित कर दिया और जिलों के पुनर्गठन के सवाल पर सदन के अंदर और बाहर एक ही जबाब दिया कि पुनर्गठन आयोग नये जिलों को बनाये जाने के सम्बंध में विचार कर रहा है वह सरकार को जब अपनी रिपोर्ट सोंपेगा तभी सरकार कोई विचार करेगी सरकार का यह जबाब एक सुंदर स्वप्न के टूटने जैसा है पर जनता के स्वप्न तो रोज़ ही धराशायी होते रहे हैं पर ऐसा भी नहीं है कि रानीखेत जिले के निर्माण की सम्भावना कभी रही ही नहीं हो या बनी ही नहीं हो इतिहास में कई ऐसे मौक़े मिले जब रानीखेत ज़िला बन गया था या कि जिलों का पुनर्गठन हो सकता था पर कई ऐसी भूलें हैं जिनका नुक़सान झेलने को रानीखेत अभिसप्त है यहाँ इतिहास हो चुकीं उन तारीख़ों का ज़िक्र ज़रूरी है जिन्हें अगर पहचान लिया जाता तो रानीखेत ज़िला बन गया होता इनमें एक तारीख सितम्बर १९९५ की है जब भाजपा बसपा गठवंधन सरकार की मुखिया मायावती ने चार जिलों की अलमोडा में घोषणा की थी और गठबंधन के उनके सहयोगी भाजपा के तत्कालीन विधायक और सांसद ने उनके कार्यक्रम से ख़ुद को अलग कर लिया शायद वो चाहते तो मायावती रानीखेत को पाँचवाँ ज़िला बनवा देतीं पर वो ऐसा नहीं कर सके दूसरा अवसर २०११ का है जब तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल की रानीखेत जिले की घोषणा का गज़ेट नोटिफ़िकेशन जारी नहीं हो सका यहाँ भी यह नोटिस किया जाना चाहिये कि अगर भाजपा का स्थानीय नेतृत्व चाहता तो ज़िला बन जाता फिर २०१२ में कांग्रेस चाहती तो रानीखेत ज़िला बन सकता था पर कांग्रेस और भाजपा को शायद रामगंगा जिले की माँग ने रानीखेत को ज़िला बनाने से रोक दिया लेकिन इस मामले में दोनों ही पार्टियाँ यह समझने में नाकाम रहीं कि अगर ज़िला हार जीत का फ़ैसला करता तो २०११ में रानीखेत जिले घोषणा से पलटने वाली भाजपा रानीखेत विधान सभा सीट से २०१२ में चुनाव नहीं जीतती और इसी हार के डर से जिले पर कोई फ़ैसला नहीं ले सकने वाली कांग्रेस रानीखेत विधानसभा का २०१७ का चुनाव नहीं जीत सकती थी राजनैतिक निर्णयों के मामले में यह कहा जा सकता है कि इनके होने या न होने में भी राजनीति ही प्रभावी रहती है कारण चाहे जो भी रहे हों पर वक़्त हमेशा मौक़ा नहीं देता जिलों के पुनर्गठन पर फ़ैसला लेकर कोई भी व्यक्ति या पार्टी इतिहास रच सकती थी लेकिन यह भी सच है कि इतिहास गढ़ने का दमख़म हर किसी में नहीं होता ।

. दिनेश तिवारी एडवोकेट पूर्व उपाध्यक्ष विधि आयोग