शहरीकरण में गुम हुई देहरादूनी बासमती की महक

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

‘देहरादूनी’ बासमती की देश-दुनिया में धाक रही है, वह अफगानिस्तान से यहां आई थी।वर्ष 1839 से वर्ष 1842 तक चले तमाम उतार-चढ़ावों वाले ब्रिटिश-अफगान युद्ध में अफगान शासक दोस्त मोहम्मद खान की हार हुई और अंग्रेजों ने उसके पूरे परिवार को देश निकाला दे दिया। तब दोस्त मोहम्मद खान निर्वासित जीवन बिताने के लिए परिवार के साथ मसूरी (देहरादून) आ गया। वैसे तो इस परिवार को यहां की आबोहवा बहुत रास आई, पर यहां के चावल से संतुष्टि नहीं मिली। ऐसे में दोस्त मोहम्मद ने अफगानिस्तान से बासमती धान के बीज मंगवाए और उन्हें देहरादून की हसीन वादियों में बो दिए। मजा देखिए कि इस धान को न केवल दून की मिट्टी रास आई, बल्कि बासमती की जो पैदावार हुई, उसकी गुणवत्ता पहले की बनिस्बत और उम्दा थी। यह चावल जब गांव के किसी एक घर में पकता तो पूरे गांव को खबर हो जाती। इसकी खूशबू पूरे गांव की फिजा को महका देती थी। धीरे-धीरे देहरादूनी बासमती की चर्चा पूरे भारत में होने लगी। व्यापारी देहरादून आते, खड़ी फसल की बोली लगाते और धान पकने पर उसे खेत से ही उठा ले जाते। एक दौर ऐसा भी आया, जब बासमती की खेती से पूरा इलाका महकने लगा। देहरादून के अलावा अब हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर और नैनीताल में भी बासमती की बेशुमार खेती होने लगी। लेकिन, हर जगह इसे देहरादूनी बासमती ही कहा गया। इसे पूरी दुनिया में अपनी खास खुशबू के लिए जाना जाने लगा। लेकिन, समय के साथ शहरीकरण की मार देहरादूनी बासमती पर पड़ी। बाकी रही-सही कसर हाईब्रीड करने के चक्कर में पूरी हो गई। जिससे देहरादूनी बासमती को पहचानना भी मुश्किल हो गया। आज तो देहरादूनी बासमती की शुद्धता की पहचान करना केवल प्रयोगशाला में ही संभव है। एक दौर में 2200 एकड़ में देहरादूनी बासमती की खेती होती थी। लेकिन, कालांतर में खेतों की जगह कंक्रीट के जंगल उगते चले गए। नतीजा, धीरे-धीरे देहरादूनी बासमती की खेती सिमटने लगी। बीज प्रमाणीकरण कंपनियों की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1981 तक देहरादून जिले में करीब छह हजार एकड़ में देहरादूनी बासमती की पैदावार होती थी। वर्ष 1990 में घटकर यह 200 एकड़ रह गई। वर्ष 2010 आते-आते यह केवल 55 एकड़ और वर्ष 2019 में मात्र 11 एकड़ के आसपास सिमट गई। जबकि एक दौर में देहरादून के सेवला, माजरा और मोथरावाला इलाकों में जब बयार चलती थी तो बासमती के खेतों से उठती महक हवा में घुल जाती। दूर से ही पता चल जाता कि यहां बासमती धान लगा है। वर्तमान में जो बासमती उगाई भी जा रही है, उसमें टाइप थ्री दून बासमती बेहद कम है। देहरादूनी बासमती का नाम तो अब सिर्फ ब्रांड के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। हकीकत यह है कि दूसरी जगह से आ रहे बारीक चावल को देहरादूनी बासमती का ठप्पा लगाकर बेचा जा रहा है। आश्चर्जनक रूप से, राजधानी बनाए जाने के 20 सालों के बाद भी देहरादून के लिए कोई स्वीकृत मास्टरप्लान नहीं है. जून 2018 में, केंद्रीय वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसी) से आवश्यक अनुमति न मिलने के कारण उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने देहरादून के लिए मास्टरप्लान 2005-2025 को निरस्त कर दिया था.बहरहाल, राज्य सरकार के योजनाकारों ने जुलाई, 2018 में सुप्रीम कोर्ट के यथास्तिथि बनाए रखने के आदेश का हवाला देते हुए पुराने मास्टरप्लान को ही जारी रखा बासमती अपनी खुशबू का जलवा निर्विवाद रूप से पूरी दुनिया में बिखेरेगा। बासमती की अंतरराष्ट्रीय पहचान पर मुहर लग गई है। घरेलू स्तर पर प्रमुख रूप से इसका लाभ गंगा के मैदानी क्षेत्र में पैदा होने वाले बासमती को मिलेगा। अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारतीय बासमती चावल की उत्कृष्टता बनी रहेगी, जिससे अच्छी कीमत मिलेगी। दुनिया का कोई देश अब बासमती के नाम से अपना चावल बाजार में नहीं बेच सकेगा।चेन्नई स्थित बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड ने वाणिज्य मंत्रालय के कृषि व प्रसंस्कृत खाद्य निर्यात प्राधिकरण (एपिडा) को यह जियोग्र्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) पेटेंट देने का अधिकार दिया है। अब एपिडा ही संबंधित बासमती चावल कंपनियों को यह टैग जारी करने के लिए अधिकृत है। हालांकि मध्य प्रदेश को नये सिरे से जीआई टैग के लिए आवेदन करना होगा, जिसके लिए नये दस्तावेज प्रस्तुत करने होंगे।सूत्रों के मुताबिक अमेरिका व यूरोपीय संघ के देशों के माफिक भारत भी अपने कृषि उत्पादों के जीआई संरक्षण का टैग करने वाला देश बन गया है। जीआई टैग से अब समूची दुनिया में भारतीय बासमती निर्विवाद रूप से अकेला होगा। इससे गंगा के मैदानी क्षेत्रों में होने वाली बासमती की खुशबू समूची दुनिया में फैलेगी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 85 फीसदी बाजार पर भारतीय बासमती का कब्जा है जबकि मात्र 15 फीसद पाकिस्तान निर्यात करता है। गंगा के मैदानी क्षेत्रों के बासमती को मिली इस सफलता से पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली व जम्मू व कश्मीर के बासमती उगाने वाले किसानों को इसका सबसे ज्यादा फायदा मिलेगा। भारत ने फैसला किया है कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत की बासमती के निर्यात का विरोध नहीं करेगा क्योंकि यह क्षेत्र भी गंगा के मैदानी क्षेत्रों में शुमार है।बासमती चावल की सर्वाधिक मांग मध्य-पूर्व के देशों के साथ अमेरिका में है। विशेष स्वाद व खुशबू के अपने कद्रदानों के बीच बासमती फिर गमक बिखेरेगा। वर्ष 2008 में एपिडा ने बासमती की खासियत गिनाते हुए जीआई पंजीकरण के लिए आवेदन किया था। भारत के साथ पाकिस्तान ने बासमती की पंरपरागत विरासत पर अपनी सहमति जताई थी। लेकिन पाकिस्तान में फिलहाल जीआई टैग की मुहर नहीं लगी है। हालांकि वहां पंजाब व करांची लॉबी के बीच जबर्दस्त विवाद चल रहा है। परस्पर सहमति से भारत ने पाकिस्तान का फिलहाल विरोध न करने का फैसला किया है। कोरोना की मार पूरी दुनिया पर दिखाई दी है। वहीं भारत में बासमती धान की खेती करने वाले किसानों को भी कोरोना की मार झेलनी पड़ रही है। कोरोना की वजह से किसानों को इस बार अपनी धान का वाजिब दाम नहीं मिल पा रहा है। पिछले साल बासमती की कीमत 2200 से 2500 रुपये कुंतल थी, मगर इस बार 1700 ही रह गई है। इस वजह से बासमती धान के किसानों के माथे पर चिंता की लकीरें हैं। जबकि इस बार बासमती की फसल पिछले साल के मुकाबले भारत में अधिक पैदावार हुई है। वहीं बासमती धान की कीमत में मंदी की एक वजह यह भी मानी जा रही है कि ईरान ने इस बार भारत से बासमती चावल नहीं खरीदा है। ईरान ने धान की खेती कर अधिक मात्रा में चावल तैयार किया है।
लेखक उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुके हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।