प्रकृति ने रानीखेत को रचा..और रचनाकारों ने यहां रचा क्या? पढे़ं एक क्लिक में

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डाॅ.कपिलेश भोज

रानीखेत में जन्मे और पहली कक्षा से बारहवीं तक वहीं के केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ाई कर चुके अपूर्व जोशी (वर्तमान में ‘दि संडे पोस्ट’ के सम्पादक) ने 2010 में प्रकाशित अपनी एक कहानी ‘इट्स आल अबाऊट मनी, हनी’ की शुरुआत इन पंक्तियों से की है -‘‘ ‘ वन हू हैज नाट् सीन रानीखेत, हैज नाट् सीन इंडिया’ यानी जिसने रानीखेत नहीं देखा उसने हिन्दुस्तान नहीं देखा। यह मैं, रानीखेत में पैदा हुआ, यहीं पढ़ा-लिखा और अब एक सैलानी की भांति अपने ही जन्मस्थान में विचर रहा चालीस के पेटे में पहुंचा, आधा वृद्ध-आधा जवान, यह मैं नहीं कह रहा बल्कि यह ग्लोबलाइजेशन को जन्म देने वाले अमेरिका के एक न्यायविद के शब्द हैें।
अंगरेजों की खोज और उन्हीं के हाथ विकसित उत्तराखण्ड के इस छोटे-से कस्बेनुमा शहर या शहरनुमा कस्बे को जो एक बार देख लेता है, वह मानो यहीं अपना दिल छोड़ देता है। यहां है हिमालय की सुन्दरता, उसकी विराटता, घने जंगल, फौज का अनुशासन और यहां के लोगों की सादगी। ’’ …
वास्तव में रानीखेत में नैसर्गिक सौन्दर्य की जो अनुपम छटा देखने को मिलती है, वह इतनी सौम्य और सम्मोहनकारी है कि उसे भूलना संभव नहीं है।
यही कारण है कि रानीखेत बहुत पहले से ही देश-विदेश के अनगिनत साहित्यकारों और कलाकारों को सुकून के कुछ पल बिताने, घूमने और पढ़ने-लिखने- रचने के लिए आकर्षित व प्रेरित करता रहा है।
जहां एक ओर गोविन्द बल्लभ पन्त (1898), श्यामाचरण दत्त पन्त (1901), रामदत्त पन्त ‘कविराज’ (1902) और भैरव दत्त जोशी (1918) – जैसे उत्कृष्ट रचनाकारों का जन्म इसी नगरी में हुआ था, वहीं रुड़की में जन्मे और बाद में रानीखेत को ही अपनी स्थायी कर्मभूमि बना लेने वाले सिद्धहस्त गद्य-लेखक डाॅ. सतीश चन्द्र जोशी‘व्योमेश’(1936) ने सन् 1959 से 1996 तक स्थानीय नेशनल इण्टर काॅलेज में 37 वर्ष तक हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कार्यरत रहते हुए श्रेष्ठ साहित्य की रचना की। वे अपने जीवन के अंतिम समय (28 सितम्बर 2002) तक निरन्तर सृजनरत रहे।
नाथूराम उप्रेती और अब्दुल मलिक-जैसे अनूठे चित्रकारों की कृतियों में भी रानीखेत की छवि जिन्दा है।
यहां समय-समय पर आकर कुछ दिन, कुछ महीने या कुछ वर्ष् रहकर भ्रमण और सृजन करने वाले अनगिनत रचनाकारों में निर्मल वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, राम कुमार, प्रकाश चन्द्र गुप्त, मेरियन बारवेल, उमर अन्सारी, राहुल सांकृत्यायन, प्रभाकर माचवे, उपेन्द्र नाथ ‘अश्क’, अज्ञेय, सुमित्रानन्दन पन्त, राजेन्द्र यादव, नामवर सिंह, श्रीपत राय, अमृत राय, यमुनादत्त वैश्णव ‘अशोक’, रमेश चन्द्र शाह, अकुलेश परिहार, दिनेश पाठक, डाॅ. राम सिंह, दुर्गाचरण काला आदि के नाम उल्लेखनीय हंै।
निर्मल वर्मा की कहानी ‘परिन्दे’ और कृष्ण बलदेव वैद का उपन्यास ‘उसका बचपन’ हिन्दी साहित्य की अत्यधिक चर्चित कथा – कृतियां रही हैं। इस दोनों ही कृतियों का सम्बन्ध रानीखेत से रहा है।


‘उसका बचपन’ सन् 1955 में रानीखेत में लिखा गया और ‘परिन्दे’ का समूचा परिवेश रानीखेत का ही है। … इन दोनों ही कृतियों का प्रकाशन आज से 62 वर्ष पूर्व हुआ था। ‘परिन्दे’ कहानी ‘हंस’ के 1957 के अर्द्धवार्षिक संकलन में प्रकाशित हुई थी और ‘उसका बचपन’ उपन्यास का प्रथम संस्करण भी 1957 में ही सरस्वती प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ था।
कृष्ण बलदेव वैद ने मई-जून 1955 में एक महीना रानीखेत के ‘रोजमाउंट’ होटल में रह कर अपना यह उपन्यास पूरा किया था। … उसी दौरान रानीखेत में रह रही अंगरेज लेखिका मेरियन बारवेल से उनकी कई मुलाकातें और चर्चाएं हुई थीं। प्रेमचन्द के दोनों साहित्यकार पुत्रों – श्रीपत राय और अमृत राय- से भी उन्हीं दिनों रानीखेत में ही उनकी भेंट हुई थी। तभी उन्होंने अपना उपन्यास पूरा करके इसे श्रीपत राय को पढ़ने के लिए दिया था।
1955 के मई – जून में रानीखेत में बिताए दिनों की छाप को कृष्ण बलदेव वैद ने अपनी डायरी में इस प्रकार दर्ज किया है –
‘‘ कल बाद दोपहर यहां पहुंचा। ठहरने का कोई इन्तजाम पहले से नहीं किया था। बस के अड्डे के पास ही एक होटल(रायल) में चला गया। कमरा तो ठीक ही था लेकिन होटल खराब और पुरशोर बाजारी माहौल।… मैं वहां एक रात से अधिक नहीं ठहरा। दूसरी सुबह मैं हंसराज कालिज के एक साबिका सहयोगी मुकर्जी की तलाश में कचहरी जा पहुंचा- मुकर्जी आई.ए.एस. में आने के बाद रानीखेत में कलक्टर वगैरह हैं। मुकर्जी ने मिलते ही मुझे उस बाजारी होटल से मुक्ति दिला दी। रोजमाउंट होटल के मालिक को फोन किया और वहीं मुझे एक काॅटेज दिलवा दी। …
अब मैं उस काटेज में हूं। होटल पहाडियों और पेड़ों से घिरा हुआ है। बैठने, घूमने, लेटने की बेशुमार जगहें आस-पास हैं।… मैं इस इन्तजाम पर बहुत खुश हूं और मुकर्जी का शुक्रगुजार। होटल में मेहमानों की भीड़ भी नहीं। खूबसूरत लान, फूल, आराम-देह और अलग काॅटेज, अच्छा खाना, वाजिब दाम।…डा


इस वक्त एक ढलान पर पसरा हुआ हूं। हवा गा रही है। मेरे थैले में एक कापी है और ‘शेखर: एक जीवनी’ का पहला भाग। सिग्रेट खत्म हो चुके हैं, बीयर भी।
सुबह की चाय के बाद नावल पर बैठ गया था। बैठक अच्छी रही। करीब दस सफे लिख डाले।… आज के काम से सन्तुष्ट हूं। अंगुलियां थक गई हैं वर्ना कुछ देर और बैठता। …
अब और नहीं। रात को षायद फिर बैठूं। कुछ देर घूमूंगा- हवा के साथ।


इस वक्त काफी ऊपर चौबटिया गार्डन के बाहर एक नामालूम पगडन्डी पर बैठा हूं। कुछ परिन्दे गप मार रहे हैं। और कोई आवाज नहीं। कुछ देर से एक चिड़िया एक ही प्रश्न पूछे जा रही – चीपू चीपू ची! ऊपर, बहुत ऊपर, पेड़ सर हिला-हिला कर षां-षां की आवाज पैदा कर रहे हैं। वह आवाज ऊपर से नीचे नहीं आती।…
पहाड़ों पर एक अनूठी आजादी, बेराहरबी, बेचैनी का अनुभव होता है। मुझे हो रहा है।
यह हरियाली, यह ऊंचाई , यह खुनकी, यह राग, यह खामोशी, यह गोदादी – ये बस कुछ और ही किस्म की हैं।…


शाम! अब फिर उन्हीं बागों के बाहर बैठा पेड़ों की शानदार शां-शां को सुन रहा हूं। पहले चौबटिया छावनी तक गया था। वहां कैन्टीन से सिग्रेट और माचिस खरीदी। बस चौबटिया से पांच बजे चलती है। तब तक यहीं बैठूंगा। बाग से कुछ शहतूत खरीदे थे। कुछ खा चुका हूं । बाकीं पड़े हैं। झींगुरों का शोर है, कुछ परिन्दों ने भी एक दूसरे को पुकारना शुरू कर दिया है
ै। कमर को आराम देने के लिए लेटा हूं।
अब ऊपर सड़क किनारे बैठा बस का इन्तजार कर रहा हूं। कल से शाम को ही घूमने निकला करूंगा।…
उपन्यास आगे बढ़ा।


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अब वापसी का दिन करीब आता जा रहा है।… यहां उदासी और ऊब के बावजूद सकून बहुत मिला। शिमले से ज्यादा। शिमले के कयाम में ऐसी आजादी और पाकीजगी नहीं थी। इस वक्त कलम और हवा की आवाज के सिवा कोई आवाज कहीं से नहीं आ रही- अन्दर से भी नहीं। बिजली नहीं, इसलिए अंधेरा भी यहां अधिक शुद्ध होता है। …
रानीखेत का एक महीना बहुत अच्छा गुजरा, बीच की कुछ उदासियों के बावजूद। काम भी बहुत किया, सारी शिकायतों के बावजूद। पहला उपन्यास पूरा कर लिया। नाम भी दे दिया-‘उसका बचपन’। दिमाग को ज्यादा आराम तो नहीं मिला लेकिन दिल को राहत जरूर मिली।…
जाने से पहले की उदासी का रंग दिल को रौंद रहा है। अब फिर यहां न जाने कब आऊंगा। यह जगह याद रहेगी, क्योंकि यहंा मैंने अपना पहला उपन्यास पूरा किया और यहीं उसको नाम दिया ‘उसका बचपन ’।’’
‘उसका बचपन’ अभाव, टीस, कसक, यातना ओर यन्त्रणा से भरे, दमघोंटू वातावरण से घिरे एक गरीब परिवार के बीच जीते बीरू नामक एक छोटे बच्चे के कारुणिक जीवन का अत्यंत सजीव और आत्मीय चित्रण करने वाला एक अविस्मरणीय उपन्यास है।
‘ परिन्दे’ कहानी की कथावस्तु लतिका नाम की एक युवती के इर्द-गिर्द घूमती है, जो रानीखेत में स्थित लड़कियों के एक काॅन्वेन्ट स्कूल में अध्यापिका है और स्कूल के ही हाॅस्टल में रहती है। … सर्दियों की छुट्यिों में चौकीदार करीमुद्दीन और डाॅक्टर मुकर्जी के अलावा हाॅस्टल में रहने वाली लड़कियां और विद्यालय स्टाफ के सभी सदस्य बाहर चले जाते हैं, लेकिन लतिका कहीं नहीं जाती और जाड़े की दो महीनों की लम्बी छुट्टियां हाॅस्टल में ही बिता देती है।… जिन्दगी में किसी बड़े लक्ष्य और सामाजिक सरोकारों के अभाव के कारण लतिका का जीवन अकेेलेपन, उदासी व दर्दभरी स्मृतियों से ही घिरा रह जाता है। … वह इस जड़ता और अतीत की धुन्ध से बाहर नहीं निकल पाती।…
कहानी में चित्रित वातावरण 1950 के दषक के षुरुआती वर्शों के उन दिनों की झलक प्रस्तुत करता है, जब रानीखेत में बिजली की सुविधा उपलब्ध नहीं थी।
कहानी के कुछ अंष द्रश्टव्य हैं-
‘‘ काॅरीडोर की सीढ़ियां न उतर कर लतिका रेलिंग के सहारे खड़ी हो गई। लैम्प की बत्ती को नीचे घुमाकर कोने में रख दिया। बाहर धुन्ध की नीली तहें इतनी घनी हो चली थीं कि उन्हें चाकू से छीला जा सकता था। लाॅन पर लगे हुए चीड़ के पत्तों की सरसराहट हवा के झोंकों के संग कभी तेज, कभी धीमी होकर भीतर बह आती थी। हवा में कुनकुनी सरदी का आभास पाकर लतिका के मस्तिश्क में कल से आरम्भ होने वाली छुट्टियों का ध्यान भटक आया। उसने आंखें मूंद ली।…
लतिका कमरे में से दो मोमबत्तियां ले आई। मेज के दोनों सिरों पर टिकाकर उन्हें जला दिया गया। टैरेस का अंधेरा प्रकाश के दायरे के इर्द-गिर्द सिमटने लगा। एक घनी नीरवता चारों ओर घिरने लगी। हवा में चीड़ के वृक्षों की सांय-संाय दूर-दूर तक फैली पहाड़ियों, घाटियों में अजीब-सी सीटियों की गूंज छोड़ती जा रही थी।…


हवा के झोंके से मोमबत्तियों की लौ फड़कने लगी। टैरेस के ऊपर काठगोदाम जाने वाली सड़क पर यू.पी. रोडवेज की आखरी बस डाक लेकर जा रही थी। बस की हैडलाइट्स में आस-पास फैली हुई झाड़ियों की छायाएं टैरेस की दीवार पर सरकती हुई गायब होने लगी।…


डाॅक्टर टैरेस के जंगले से सटकर खड़े हो गए। फीकी-सी चांदनी में चीड़ के पेड़ों की छायाएं लाॅन पर गिर रही थीं। कभी-कभी कोई जुगनू अंधेरे में हरा प्रकाश छिड़कता हुआ गायब हो जाता था।


हवा के हल्के झोंके से मोमबत्तियां एक बार प्रज्ज्वलित हो कर बुझ गईं।… टैरेस पर ह्यूबर्ट और डाॅक्टर अंधेरे में एक दूसरे का चेहरा नहीं देख पा रहे थे। फिर भी वे एक-दूसरे की ओर देख रहे थे। काॅन्वेन्ट स्कूल से कुछ दूर ‘मीडोज’ में बहते हुए पहाड़ी नाले का स्वर आ रहा था। जब बहुत देर बाद कुमाऊं रेजिमेंटल सेन्टर का बिगुल सुनाई दिया तो ह्यूबर्ट हड़बड़ाकर खड़ा हो गया।


लेफ्ट-राइट… लेफ्ट….. लेफ्ट…
कैन्टोनमेंट जाने वाली पक्की सड़क पर चार-चार की पंंिक्त में कुमाऊं रेजीमेन्ट के सिपाहियों की एक टुकड़ी मार्च कर रही थी। फौजी बूटों की भारी खुरदरी आवाजें स्कूल चैपल की दीवारों से टकराकर भीतर ‘पे्रयर हाॅल’ में गूंज रही थीं।
लेफ्ट… लेफ्ट…. लेफ्ट, मार्च करते हुए फौजी बूट चैपल से दूर होते जा रहे थे। केवल उनकी गूंज हवा में शेष रह गई थी।


बारिश होने की आशंका से आज के कार्यक्रम में कुछ आवष्यक परिर्वतन करने पड़े थे। पिकनिक के लिए झूला देवी के मन्दिर जाना संभव नहीं हो सकेगा, इसलिए स्कूल से कुछ दूर ‘मीडोज’ में ही सब लड़िकयां नाश्ते के बाद जमा होंगी।


पक्की सड़क पर लड़कियों की भीड़ जमा थी। इसलिए वे दोनों पोलो-ग्राउंड का चक्कर काटते हुए पगडंडी से नीचे उतरने लगे।
हवा तेज हो चली थी, चीड़ के पत्ते हर झौंके के संग टूट-टूट कर पगडंडी पर ढेर लगाते जाते थे। ह्यूबर्ट रास्ता बनाने के लिए अपनी छड़ी से उन्हें बुहार कर दोनों ओर बिखेर देता था। लतिका पीछे खड़ी हुई देखती रहती थी, अल्मोड़ा की ओर से आते हुए छोटे-छोटे बादल रेषमी रूमालों – से उड़ते हुए सूरज के मुंह पर लिपटे से जाते थे, फिर हवा में आगे बह निकलते थे। इस खेल में धूप कभी मंद फीकी-सी पड़ जाती थी, कभी अपना उजला आंचल खोल कर समूचे पहाड़ी षहर को अपने में समेट लेती थी।


वे दोनों फिर चलने लगे। हवा का वेग ढीला पड़ने लगा था। उड़ते हुए बादल अब सुस्ताने-से लगे थे, उनकी छायाएं नन्दा देवी व पंचाचूली की पहाड़ियों पर गिर रही थीं। स्कूल के पास पहुंचते-पहुंचते चीड़ के पेड़ पीछे छूट गए। कहीं-कहीं खुबानी के पेड़ों के आस-पास बुरूंस के लाल फूल धूप में चमक जाते थे। स्कूल तक आने में उन्होंने पोलो ग्राउंड का लम्बा चक्कर लगा लिया था।’’…
हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि और आलोचक मलयज का भी रानीखेत से गहरा लगाव रहा है।… उनकी बहिन प्रेमलता वर्मा द्वारा प्रस्तुत जानकारी के अनुसार बीस वर्ष की उम्र में तपेदिक की बीमारी के कारण दक्षिण भारत के वेल्लूर शहर की एक सेनेटरी में एक अमरीकी सर्जन के हाथों उनके क्षयग्रस्त एक फेफड़े को काटकर निकाल दिया गया था और दो साल तक वे वहीं वेल्लूर की सेनेटरी में रहे। वहां से लौटने पर वे रानीखेत आए और यहां उन्हें मनचाहा एकांत तो मिला ही, उन्होंने स्वास्थ्य-लाभ भी किया। पचास के दशक में रानीखेत में रहने के दौरान ही उन्होंने सर्वाधिक कविताएं लिखीं।
साहित्यकार रमेश चन्द्र शाह को लिखे एक पत्र में उन्हांेने लिखा है कि ‘‘मुझे इस बीमारी के दौरान बार-बार अपने रानीखेत-अल्मोड़े के दिनों की याद आती रही। एक दिन अपना बक्सा खोलकर पुराने कागज- पत्तर देखता रहा। उसमें बहुत-सी चीजें उस जमाने की सन् 56-58 की निकर्ल आइं। रानीखेत में ही मेरा प्रकृति-बोध विकसित और पुष्ट हुआ। डायरी के पृष्ठ, कविताएं, कहानियां सब मैंने वहीं लिखीं। एकाकी क्वांरा जीवन-बीमारी से ताजा-ताजा उबरा था तब।’’…
प्रतिष्ठित समालोचक प्रकाश चन्द्र गुप्त ने रानीखेत में बिताए अपने यादगार दिनों को 1947 के बाद लिखित अपने रेखाचित्र ‘कुमायूं के अंचल में’ में निम्न प्रकार अंकित किया है-
‘‘कालिका के टोल बार पर शेर सिंह की दुकान पर बैठे-बैठे हम चाय पी रहे थे। गरम गिलासों में छै पैसे वाली ‘चहा’ जिसको पीने में एक आनन्द आता है, जो बढ़िया रैस्ट्रांज में भी नहीं मिलता। इस चाय में पहाड़ों का, चीड़ के वनों का अन्तरंग कुछ है, जो ‘बार्नेट’ की चाय से सर्वथा भिन्न है। यहा चाय आपको हिमालय के अन्तर्देश का स्मरण दिलाती है, दुर्गम वन और पर्वतों का, जहां मनुष्य का भक्षण करने वाली पूंजीवादी सभ्यता अपने पैर अभी तक नहीं फैला पाई है।
कालिका का सौदर्य भी मानो हम चाय के इन घंूटों के साथ पीने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस अकथनीय सांैदर्य को शब्दों में बांधने का यत्न व्यर्थ है। इस दृश्य में ऐसा कुछ विराट, शांतन्त और शालीन है, जो शब्दों और रेखाओं के जाल को निरंतर तोड़कर भाग निकलता है।
ठीक ‘टोल बार‘ के सामने एक गहरा वन सांय-सांय करता है। इस वन से शाम के समय कभी-कभी हमने कांकड़ का तीखा स्वर वायु के परदे को तीर के समान चीर कर आगे बढ़ता हुआ सुना है। हमारे अनुभवी मित्र कहते हैं, ‘ लकड़बग्घा कहीं आस-पास ही है। जब कांकड़ बोलता है, तो लकड़बग्घे को पास ही समझिएं ’…


कालिका के सौंदर्य को कोई कुशल चितेरा ही चित्रित कर सकता है। इसके एक ओर अखंड वन हैं, दूसरी ओर हिमालय का साम्राज्य। सामने ही गगास की घाटी है, उसके पार भटकोट का शिखर, और फिर हिमशिखर हैं। ’’
शैलेश मटियानी ने भी अपनी एक कहानी ‘भंवरे की जात’ में चिणकुली की बेटी कुंतुली मिरासिन उर्फ किड़ी हुड़क्यानी, राज वैद्य दुर्गादत्त कविराज और राम सिंह हवलदार आदि पात्रों के माध्यम से दूसरे महायुद्ध (1939-45) के दौर और फिर आजादी के बाद के शुरुआती वर्षों के रानीखेत को चित्रित किया है।
वैज्ञानिक कथाकार और इतिहासविद् यमुनादत्त वैष्णव ‘अशोक’ का सन् 1948 में बिजनौर से रानीखेत स्थानांतरण हुआ था। वे उन दिनों आबकारी निरीक्षक के पद पर नियुक्त थे। …1948 से 1950 के बीच रानीखेत में रहने के दौरान उनका परिचय उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ से हुआ था। तभी अश्क जी सपरिवार रानीखेत आकर एक महीने तक रहे।
अल्मोड़ा-कटारमल-कोसी-सोमेश्वर-कौसानी-गरूड़(बैजनाथ) की यात्रा पूरी करके राहुल सांकृत्यायन प्रभाकर माचवे के साथ लौटते हुए 30 मई, 1950 को रानीखेत पहुंच कर वैष्णव जी के पास रुके थे।…राहुल जी के रानीखेत पहुंचने के अवसर पर एक साहित्यिक गोष्ठी का आयोजन किया गया था, जिसमें वैष्णव जी ने कुछ लेख पढ़कर सुनाए थे।
सत्तर के दशक के प्रारंभ में युवा कहानीकार अकुलेश परिहार ने इलाहाबाद से स्थानांतरित होकर भारतीय स्टेट बैंक, रानीखेत में कार्यभार ग्रहण किया था। तब वे हिमालय होटल के कमरा नं. 6 में रहा करते थे। रानीखेत में रहने के दौरान ही उनकी कई कहानियां सारिका, नीहारिका, कहानी आदि उस समय की प्रसिद्ध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं
। उन्होंने रानीखेत से ही ‘दस्तावेज’ नामक एक साइक्लोस्टाइल्ड साहित्यिक पत्रिका के भी कुछ अंकों का सम्पादन और प्रकाशन किया था।
वर्तमान में भी रानीखेत में डाॅ. विपिन चन्द्र शाह, नरेन्द्र रौतेला, मोहन भण्डारी (अवकाश प्राप्त लेफ्टिनेंट जनरल), विमल सती, कमलेश जोशी, नीलम नेगी आदि रचनाकार निवास कर रहे हैं और उनकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। … यह भी उल्लेखनीय है कि विमल सती के सम्पादन में सन् 2003 से ‘प्रकृत लोक’ जैसी सुसज्जित पत्रिका का भी नियमित प्रकाशन रानीखेत से हो रहा है।

डाॅ कपिलेश भोज कवि, समीक्षक ,साहित्यकार हैं।